गुरुजनों के बताये रास्ते पर चलने से ही होगी लक्ष्य की प्राप्ति – डा.ए.के.राय     

*शिक्षक दिवस 05 सितम्बर पर विशेष*                 भारतीय सनातनी ग्रन्थों में गुरु को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। बगैर गुरु की दीक्षा लिए कोई भी धार्मिक कार्य संपन्न नहीं माना जाता है, तो वहीं शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में भी गुरु को विशेष स्थान दिया गया है या यूं कहा जाए कि गुरु को ईश्वर के समतुल्य बताया गया है क्योंकि गुरु वह व्यक्ति हैं जो हमें अशिक्षा और अज्ञान के अंधकार से बाहर निकाल कर ज्ञानवा बनाते हुए ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। गुरु महिमा का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि –
गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो माहेश्वरः,
गुरु साक्षात परमब्रह्म तस्मये श्री गुरुवे नमः।
अर्थात, गुरु का महत्व हमारे जीवन में सर्वोपरि माना गया है, इसे उपरोक्त श्लोक से आसानी से समझा जा सकता है जिसमें गुरु का स्थान ईश्वर से भी उपर बताया गया है। गुरु की महिमा पर कबीरदास ने भी लिखा है –
“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काको लागों पाय,
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।”
एलेक्जेंडर ने भी शिक्षक के महत्त्व पर लिखा कि –
” मैं जीने के लिए अपने पिता का ऋणी हूँ, पर अच्छे से जीने के लिए अपने गुरु का ”
आदि काल से ही हमारे देश में ऋषियों, मनिषियों ने अपने ज्ञान से मानव जाति को शिक्षित करते हुए उनका ज्ञानवर्धन किया है। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनाने में गुरु वशिष्ठ की तो श्रीकृष्ण को योगीराज बनाने में गुरु संदीपनी की, भीलीनी शबरी को ज्ञानवान बनाने में ऋषि मातंग की, अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धर बनाने में गुरु द्रोणाचार्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसी क्रम में चन्द्रगुप्त मौर्य से सम्राट अशोक तक चाणक्य की गुरुता सर्वव्यापक है तो वर्तमान समय में भी अनेक विभूतियों ने अपने ज्ञान से हम सबका मार्ग दर्शन किया है। उन्ही में से एक महान विभूति शिक्षाविद्, दार्शनिक, महानवक्ता एवं आस्थावान विचारक डॉ. सर्वपल्लवी राधाकृष्णन जी ने शिक्षा के क्षेत्र में अमूल्य योगदान दिया है। उनके जन्मदिन पांच सितम्बर को हम शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। देश के प्रथम उपराष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को 1962 में देश में पहली बार शिक्षक दिवस के रुप में मनाया गया। डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद और महान दार्शनिक थे जिन्हें भारत सरकार ने 1954 में सर्वोच्च सम्मान “भारत रत्न” से सम्मानित किया था। उनका जन्म 5 सितंबर 1888 को तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में हुआ था। प्रख्यात लेखक व वक्ता राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया था। 21 वर्ष की उम्र में 1909 में राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में दर्शन शास्त्र के कनिष्ठ व्याख्याता के रुप में शिक्षा देना प्रारम्भ किया। 1910 में उन्होंने शिक्षण का प्रशिक्षण मद्रास में लेना आरम्भ कर दिया। 1929 में इन्हें व्याख्यान देने हेतु ‘मानचेस्टर विश्वविद्यालय’ द्वारा आमंत्रित किया गया। इन्होंने मानचेस्टर एवं लन्दन में कई व्याख्यान दिए। राधाकृष्णन 1931 से 1936 तक आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति तो 1936 से 1952 तक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे। कलकत्ता विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया। 1939 से 1948 तक काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय के चांसलर रहे। 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्‍वविद्यालय के कुलपति रहे। उन्होंने 1946 में युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की मान्यता थी कि यदि सही अर्थों में शिक्षा दी जाय़े तो समाज की अनेक बुराईयों को मिटाया जा सकता है। उनका मानना था कि व्यक्ति निर्माण एवं चरित्र निर्माण में शिक्षा का विशेष योगदान है। वैश्विक शान्ति, वैश्विक समृद्धि एवं वैश्विक सौहार्द में शिक्षा का अतिविशेष महत्व है। वे कहा करते थे कि ” पुस्तकें वो साधन हैं जिनके माध्यम से हम विभिन्न संस्कृतियों के बीच पुल का निर्माण कर सकते हैं।” उच्चकोटि के शिक्षाविद् डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी को भारत के प्रथम राष्ट्रपति महामहिम डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भारत रत्न से सम्मानित किया था।
      महामहिम राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के महान विचारों को ध्यान में रखते हुए हमारा यह पुनीत कर्तव्य है कि वगैर किसी भेदभाव के हम गुरुजनों के सम्मान के साथ शिक्षा की ज्योति को ईमानदारी से अपने जीवन में आत्मसात करते हुए अन्य को भी आगे बढ़ने हेतु प्रेरित करें‌। सम्मान भाव के साथ समस्त गुरुजनों के श्रीचरणों में सादर नमन


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