नेताजी सुभाष चन्द्र बोस राष्ट्र की अनमोल धरोहर – माधव कृष्ण 

गाज़ीपुर। द प्रेसिदियम इंटरनेशनल स्कूल अष्टभुजी कॉलोनी, बड़ी बाग़ में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की १२७वी जयन्ती ससमारोह मनाई गयी। इस अवसर पर विद्यालय के छात्र छात्राओं से विचार विनिमय में कुछ बातें सामने आयीं। सुभाष चन्द्र बोस (23 जनवरी 1897 – 18 अगस्त 1945) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी तथा सबसे बड़े नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फ़ौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है। “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा” का नारा भी उनका था जो उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया। भारतवासी आज भी उन्हें नेताजी के नाम से सम्बोधित करते हैं।

       कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जब नेताजी ने जापान और जर्मनी से सहायता लेने का प्रयास किया था, तो ब्रिटिश सरकार ने अपने गुप्तचरों को 1941 में उन्हें खत्म करने का आदेश दिया था। नेताजी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने ‘सुप्रीम कमाण्डर’ के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए “दिल्ली चलो!” का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से वर्मा सहित इम्फाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया। 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने आज़ाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार का गठन किया, जिसे जर्मनी, जापान, फ़िलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड सहित 11 देशो की सरकारों ने मान्यता प्रदान की थी। जापान ने अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह इस अस्थायी सरकार को दे दिए। सुभाष उन द्वीपों में गए और उनका नया नामकरण किया। 1944 को आज़ाद हिंद फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था और यह एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ।

     6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक प्रसारण जारी किया जिसमें उन्होंने इस निर्णायक युद्ध में विजय के लिए उनका आशीर्वाद और शुभ कामनाएँ मांगी।      नेताजी की मृत्यु को लेकर आज भी विवाद है। जहाँ जापान में प्रतिवर्ष 18 अगस्त को उनका शहीद दिवस धूमधाम से मनाया जाता है वहीं भारत में रहने वाले उनके परिवार के लोगों का आज भी यह मानना है कि सुभाष की मौत 1945 में नहीं हुई। जिस वायुयान दुर्घटना में उनकी कथित मृत्यु की बात की जाती है वास्तव में वह वायुयान दुर्घटना उस दिन वह हुई ही नहीं थी। वे उसके बाद रूस में नज़रबन्द थे। यदि ऐसा नहीं है तो भारत सरकार ने उनकी मृत्यु से संबंधित दस्तावेज अब तक सार्वजनिक नहीं किए क्योंकि नेता जी की मृत्यु नहीं हुई थी। 

      आज़ाद हिन्द सरकार के 75 वर्ष पूर्ण होने पर इतिहास में पहली बार वर्ष 2018 में भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने लाल क़िला पर तिरंगा फहराया। 23 जनवरी 2023 को नेताजी की 127वीं जयंती को भारत सरकार के निर्णय के तहत पराक्रम दिवस के रूप में मनाया गया। आठ सितम्बर 2022 को नई दिल्ली में राजपथ, जिसका नामकरण कर्तव्यपथ किया गया, पर नेताजी की विशाल प्रतिमा का अनावरण किया गया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस उन चन्द महापुरुषों में हैं जिनके नाम पर समूचा भारत एक हो जाता है। आज भी प्रत्येक भारतवासी की आँखें इस आशा से चमक उठती हैं कि कहीं से यह समाचार मिल जाएगा कि नेता जी जीवित हैं। नेता जी का सम्पूर्ण जीवन त्याग का ज्वलंत उदाहरण है। आज जब लोग क्षणिक सुख-यश-मान के लिए चारित्रिक समझौते करते जा रहे हैं, उस समय नेता जी हम सभी को कैवल्य उपनिषद के उस मन्त्र की याद दिलाते हैं जो कहता है, “न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः। परेण नाकं निहितं गुहायां विभ्राजते यद्यतयो विशन्ति ॥” उस (अमृत) की प्राप्ति न कर्म के द्वारा, न सन्तान के द्वारा और न ही धन के द्वारा हो पाती है। (उस) अमृतत्व को सम्यक् रूप से (ब्रह्म को जानने वालों ने) केवल त्याग के द्वारा ही प्राप्त किया है। स्वर्गलोक से भी ऊपर गुहा अर्थात् बुद्धि के गह्वर में प्रतिष्ठित होकर जो ब्रह्मलोक प्रकाश से परिपूर्ण है, ऐसे उस (ब्रह्मलोक) में संयमशील योगीजन ही प्रविष्ट होते हैं।

     विक्टोरिया म्यूजियम में नेता जी के संग्रहालय को एक तीर्थ समझकर प्रत्येक भारतीय को वहां जाना चाहिए। यदि हम इन महापुरुषों के विषय में बातें करेंगे तभी भारत को एक और अक्षुण्ण रखने वाले लोग चिन्तन मनन करेंगे। 

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