आध्यात्मिक शक्ति पूंज के धनी रहे महंत रामाश्रय दास जी

गाजीपुर। सिद्धपीठ भुड़कुड़ा मठ के दसवें महंत रामाश्रय दास जी महाराज को उनकी पुण्यतिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गयी।

          उल्लेखनीय है कि जखनियां तहसील मुख्यालय से करीब चार किलो मीटर दूर स्थित यह मठ लगभग 450 वर्ष प्रचीन निर्गुनिया संत परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ी है। अनेकों सन्त व महात्माओं की कर्मभूमि बना यह मठ आज भी अपनी दिव्यता के लिए प्रसिद्ध है।

           सिद्धपीठ भुड़कुड़ा मठ के वर्तमान महंत शत्रुघ्न दास के निर्देशन में मठ परिसर में विद्यमान ब्रह्मलीन महंत की समाधि पर शिष्य समुदाय के लोगों ने पूजन अर्चन कर सुख शांति की कामना की। वहीं पीजी कॉलेज भुड़कुड़ा परिवार ने अपने संस्थापक के चित्र पर पुष्प माला चढ़ाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी। 

          बताते चलें कि साहित्य और अध्यात्म के प्रति रुचि रखने वालों के लिए विशेष महत्व रखने वाले भुड़कुड़ा मठ के दसवें गुरु रामाश्रय दास का प्रथम आगमन करीब पंद्रह वर्ष की अवस्था में सन 1934 के करीब होने का उल्लेख है। यहां आगमन के बाद संत बूला साहब, गुलाल साहब, भीखा साहब की तपस्थली से उनका ऐसा नेह जुड़ा कि कुल, गोत्र, गांव, जंवार, परिवार सब पीछे छूट गया और उनका मन फकीरी में रम गया। उन्होंने तत्कालीन महंत रामबरन दास से दीक्षा लेकर विधिवत सन्यास आश्रम में प्रवेश किया। वह सन 1969 में मठ के दसवें महंत बने। उन्होंने साधना का मार्ग चुना और गुरु के बताए मार्ग का अनुसरण करते हुए जीवन पर्यन्त सतनामी सद्गुरुओं की भूमि भुड़कुड़ा को सींचते रहे। वे मठ में आने जाने वाले श्रद्धालुओं से जनभाषा में संवाद करते हुए बड़ी ही आत्मीयता के साथ सन्त साहित्य और श्रीरामचरित मानस के गूढ़ रहस्यों का विवेचन विश्लेषण किया करते थे। कभी कभार मन हुआ तो हारमोनियम लेकर भजन गाना शुरू कर देते थे और ढोलक पर थाप देते थे। अपनी सहजता के कारण ही वह अपने जीवन काल में असहज परिस्थितियों का सामना भी हंसते खिलखिलाते हुए किया करते थे। साधारण भोजन, अति साधारण रहन सहन लेकिन हमेशा आध्यात्मिक ऊंचाई के शिखर पर आसनस्थ दिखाई देते थे। उन्होंने सन 1972 में अपने गुरु का अनुसरण करते हुए उच्चशिक्षा का प्रसार करने के उद्देश्य से इस दूरस्थ क्षेत्र में डिग्री कॉलेज की स्थापना किया, जो आज क्षेत्र के हजारों युवक/युवतियों की उच्च शिक्षा में सहायक साबित हो रहा है। भौतिकता की चकाचौंध भरी इस दुनियां में उनका स्थूल शरीर भले ही हमारे बीच नहीं है, परन्तु उनकी यशः काया मानवता के सन्ताप का क्षय करती रहेगी।

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