कविता ! “क्यों न रस पान करे ये दिल”

“क्यों न रस पान करे ये दिल”

मन मीत मिली है सरिता सी, कैसे उसका मैं मान करूँ,
वह आई है हाला बनके,कैसे अधरों से पान करूँ।

है प्रेम रुपी आँचल ओढ़े, हर पल दिल को है सहलाती,
वह आई स्नेह कली बनकर ,लहरों सी वह है लहराती।
वह पुष्प कली है कोमल सी,कैसे उसका सतकार करूँ।।

दस्तक देती हर पल दिल में,खुशबू उसमें है जूही सी,
मकरन्द बिखेर रही सम्मुख, गहराई उसकी है कूँई सी।
वह आम्र मंजरी सी तरुणी, कैसे उसका यश गान करूँ।।

मेरे मन बीच मरूथल को,सिंचित करती अपने जल से,
हर लेती तन के कष्टों को, ढक लेती जब निज आँचल से।
वह प्रथम प्रणय का आलिंगन, कैसे दिल के उदगार कहूँ।।

मेरे उर की इस तप्त भूमि को,हर पल वह है दहकाती,
ओढ़ चुनर दुल्हन के सम,रति भावों को है महकाती।
वह प्रथम प्रणय की सूर्य रश्मि, कैसे उसका श्रृंगार करूँ।।

आई है मधुर बसंत लिए, पुष्पित पुष्पों से सजी हुई,
क्यों न रस पान करे ये दिल, है वह वेणी सी गुंथी हुई।
वह लाजवंती वह सुघड़ हृदय,किस कर उसका गुणगान करूँ।।

मन मीत मिली है सरिता सी, कैसे उसका मैं मान करूँ।
वह आई है हाला बनके, कैसे अधरों से पान करूँ।।

कवि अशोक राय वत्स द्वारा स्वरचित.

रैनी, मऊ, उत्तरप्रदेश- मो. 8619668341

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