कविता ! “हाथ तिरंगा मन में दंगा”

“हाथ तिरंगा मन में दंगा”

शाहीन बाग एक बहाना है,
मकसद इनका बंटवारा है।
हाथ तिरंगा मन में दंगा,
मकसद दंगे भड़काना है।।
पैसे लेकर गाली देना,
इनका बस यही तमाशा है।
नागरिकता एक बहाना है,
बस हिन्दू एक मात्र निशाना है।।

जिनका मकसद बंटवारा है,
उनको अब सबक सिखाना है।
जो भौंक रहे चौराहों पर,
उनको पौरुष दिखलाना है।।
हे देशवासियों सुनों आज,
तुमको भी निर्णय करना है।
आजाद सरीखे जीना है,
या जयचन्दों सा मरना है।।
वो कहते हैं तुम हिन्दू हो,
हिन्दूत्व तुम्हारा नारा है।
तो कान खोलकर सुनें जरा,
हमको कलाम भी प्यारा है।।
तुम बिश्मिल बन कर देखो तो,
हममें असफाक उल्ला भी है।
मैं ही राणा मैं ही बादल,
मुझमें झांसी रानी भी है।।
हाँ हाँ मैं नफरत करता हूँ,
पर नफरत तुम ही बोते हो।
कभी कसाब और कभी अफजल बन,
अपनी गरिमा खोते हो।।
तुमने बच्चों को आगे कर,
यह पाठ पढाया है कैसा।
भारत के टुकड़े करने का,
नापाक इरादा है कैसा।।
तुम जितनी नफरत बोते हो,
उतने ही बेबस होते हो।
कर के सौदा इस तन मन का,
तुम कैसे चैन से सोते हो।।
तुम भारत मुर्दाबाद कहो,
यह बात न हमको जंचती है।
तुम अफजल का गुणगान करो,
यह बात न हमको पचती है।।
यदि हमें परखना चाहो तो,
हम हल्दी घाटी वाले ही हैं।
घास की रोटी खाकर भी,
हम धड़़ को चीरने वाले ही हैं।।
जब पानी सर से ऊपर उठता,
हम हिमगिरी से दृढ़ बन जाते हैं।
पापी, अधमी और देशद्रोही का,
शीश काट दिखलाते हैं।।
थू है धिक्कार जवानी वो,
जो काफिर का गुणगान करे।
अब शीश बचेगे न उनके,
जो भारत मूर्दाबाद कहें।।

  कवि – अशोक राय वत्स
     मो.नं. 8619668341

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