आपसी भाईचारे को मजबूती प्रदान करता है रंगपर्व होली

गौरीशंकर पाण्डेय सरस
गाजीपुर। भारत त्योहारों का देश है और ये त्योहार सामाजिक भावना से ओतप्रोत होते हैं। हर त्यौहार के अपने वैज्ञानिक आधार भी हैं। ये लोकपर्व जहां आपसी भाईचारे का संदेश देते हैं वहीं प्राकृतिक रूप से भी जुड़े होते हैं। त्योहारों के जरिए लोग आपसी अनबन भुलाकर आपसी मेल और सद्भाव के जरिए एकता और अखंडता की नींव को मजबूती देते हैं। पौराणिक कथाओं के माध्यम से धार्मिक भावनाओं को विकसित किया जाता। यही वजह है कि होली के दिन दिल खिल जाते हैं रंगों में रंग मिल जाते हैं और शहर से लेकर गांव तक, कस्बों और बाजारों तक बाल्टी के बाल्टी उड़ेलते रंग उड़ते अबीर गुलाल युवकों युवतियों के सूर्ख होते गाल सबके सब बिना कहे बता रहे होते हैं कि बुरा न मानो होली है।
आज से लगभग चार दसक पहले जहां आपसी भाईचारा,होली का खुमार सबके सिर चढ़कर रंगोत्सव का अहसास कराता था आज वही सब धीरे धीरेलुप्त हो चला है। चालीस साल पहले माघ मास शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि से समस्त गांव के लोगों द्वारा होलिका गाड़ने से लेकर होलिका दहन तक का मध्य भाग अपने आप में काफी खुशनुमा हुआ करता था। गांव के बड़े बुजुर्गो संग युवकों की गायन मंडली से गूंजते चौपाल पर चौताल और झूमर संग बेलवईया, फाग, होली और कबीरा को लोग चाव के साथ सुनकर आनन्दित होते थे और दिल खोलकर खुशी का इजहार करते थे। गांव के चौपाल पर होने वाले चौताल और झूमर क्लिष्ट हिन्दी भाषा साहित्य के नव रस से सराबोर गीतों का शब्द विन्यास और उसके शुद्ध उच्चारण सुयोग्य और शिक्षित होने के पुख्ता सबूत थे। बसंतागमन पर बागों अमुराईयों में कूंकती कोयल की कूंक और आम्रमंजरी से महकती दशो दिशाएं, मंजरियों पर रसास्वादन के लिए गुंजार करते भ्रमरों के दल अपने आप में अद्भुत थे।
विरह गीतों में बारह मासा चौताल और प्रश्नवाचक पहेली दार बेलवइया की भी काफी धूम हुआ करती थी। चौताल का परदेशवा बलमुआं सिधारे विरह दुःख डारे ,माघ बाघ सम फाड़ खात फागुन फगुआ ललकारे,चैत चमेली चवहुं दिशी फूलल, कोयल नभ कहर गुजारे विरह दुःख डारे–
इसी तरह बेलवइया भी काफी दिमाग गीत थी जैसे: है गहरा ऐलान चार प्रश्न पर भाई,दिजै बतलाय चार प्रश्न पर भाई,कौन वृक्ष जहां में जिसकी तीन प्रमुख हैं शाखा,कोटि बहत्तर लटकी डाली बन्धन जकड़ के बांधा आदि– काम प्रधान गीतों के अलावा भक्ति प्रधान गीतों का भी जलवा रहा था। जैसे मैं तो सुमिरहुं आदि भवानी रे माया, मातु जगदंबा देवी देखौ मैं तोर शिवा नंगा, होली खेलैलैं पवन कुमार लंका मझार चढ़ी, आदि–
गांव की अहम विशेषता यह थी कि एक दुसरे के प्रति अगर अनबन भी थी तो बहुत टिकाऊ नहीं हुआ करती थी। सामाजिक समरसता का मोल था। होली के हुड़दंग में सबके सब एक सा नजर आते थे। लगभग डेढ़ महीने तक चलने वाले होली रस रंग में नौटंकी मंचन काबिले तारीफ था। गीतों भरा पात्रों का दृढ़ता पूर्वक संवाद मंचन मन को विनोद से भर देता था। गायकी में तन्मयता, वाद्ययंत्रों के मेल का कोई जबाव नहीं था। होली के दिन विविध भांति के बने पुआ पकवान,उम्दा मिष्ठान गुझिया आदि से द्वार पर आए बंधुबांधवों का सत्कार किसी अतिथि स्वागत से कम नहीं था। छनती भंग, गटकते लोग, चढ़ती नशा दीवाना बना देती थी।
अब बदलते परिवेश में न जाने किसकी नज़र त्योहारों पर भी लग गई। गांव की एकता और अखंडता मर्माहत होने लगी।अब पहले जैसा परिवेश का होना दीवास्वप्न सा हो चला है। बड़े बुजुर्गो के अनुसार गांव में हड़प और पांव पसारने की कूटरचित साजिश ने कटुता का बीज बो दिया जिससे वर्तमान युवा पीढ़ी काटने को मजबूर हैं। कुछ कुंठित मानसिकता के धनी लोगों की कुटिल साजिश के चलते गांव का मधुर संबंध आपसी प्रतिशोध वैचारिक मतभेद में तब्दील हो गए।
अपने को शिक्षित और योग्य समझने वाले लोगों ने सांस्कृतिक विरासत संजोए त्यौहारों की ऐसी व्याख्या की कि अब त्योहार का मूल उद्देश्य ही लोग भूलते जा रहे हैं। लोगों का सामाजिक दायरा अब सिमट कर परिवार तक सीमित होने लगा है जिससे उसका महत्व कम होने लगा है।
आज आवश्यकता हैकि त्यौहार को एक बार फिर सामाजिक स्तर पर मिलजुल कर मनायें जिससे सामाजिक सौहार्द कायम हो सकें।

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