कवि हौशिला प्रसाद अन्वेषी की नयी रचना

,,,,,,,,,,,,,,,बनारस,,,,,,,,,,,,,,

जी हाँ,
मैं
बनारस हूँ।
तुम चाहो तो
वाराणसी भी
कह सकते हो,
अपनी सुविधा के लिए।
वैसे तो मैं
काशी भी हूँ
जहाँ तीन लोक के स्वामी
अवढर दानी
सदा शिव
गाड़ दिए थे
अपना त्रिशूल
पृथ्वी के मध्य में
मनभावन आवास कहकर ।
अब वहीं रहते हैं
सब सहते हैं ।
सुरसरि गंगा के
रम्य तट पर
सर्व विद्या की राजधानी
काशी,
मैं ही हूँ ।
मुझे लोग
भारत की
सास्कृतिक ही नहीं
धार्मिक राजधानी भी
मानते हैं।
मोक्षदायिनी जानते हैं ।
और यहीं पर
बुद्ध ने
अपने नै भक्तों से
बुद्धम् शरणम् गच्छामि
कहलवाया,
और कहा था
अप्प दीपो भव ।
जी हाँ
मै
वही बनारस हूँ,
जहाँ
सत्य के लिए
बिक गए थे
राजा हरिश्चंद्र।
यहीं पर
काशी नरेश ने
लगाया था
नारा
हर हर महादेव का।
और यहीं पर
आकर बैठ गए थे
समय के पूज्य देवता
काल भैरव
अपनी जटा फैलाकर ।
यहीं से गूँजी थी
शहनाई
बिश्मिल्ला खाँ की
पूरे विश्व में ।
यहीं से कबीर ने
फटकारा था
सबको,
और सुधारते हुए
कहा था
तेरा साईं तुज्झ में।
तुलसी ने भी
यहीं पर लिखा था
रामचरित मानस
निश्चिंत होकर ।
यहीं पैदा हुए थे
रविदास कीनाराम
और झाँसी की रानी
बलिदानी बनकर ।
यहीं पर पैदा हुए थे
सबकुछ लुटानेवाले
हिंदी को समर्पित
भारतेंदु हरिश्चंद्र।
और यहीं चलाए थे
अपनी कलम
प्रेमचंद ,प्रसाद
और आचार्य शुक्ल भी,
जो लिख दिए
अमर इतिहास
हिंदी साहित्य का
,यहीं पैदा हुए थे
नामवर।
यहीं से
ललकारे थे
संसद को
कवि धूमिल।
और यहीं से
गोरख पांडेय ने भी
की थी
शुरुवात
अपने साहित्यिक यज्ञ की।
यहीं पर
पूरे काशी बनारस
वाराणसी,
जो भी है,
सबकी परंपरा को
समेटे बैठे हैं,
इन दिनों
काशी का अस्सी
लिखनेवाले
काशीनाथ
अपने अन्वेषी
शिष्यों को
हस्तांतरित करते हुए
पूरी की पूरी परंपरा
काशी की,
जिसे हम
बनारस कहते हैं ।।

कवि – अन्वेषी

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