कवि हौशिला प्रसाद अन्वेषी की नयी रचना

थका हारा
जब भी मैं
टूटता हूँ
बिखरता हूँ
समाप्त होता हूँ।
उठता हूँ
जोड़ता हूँ
फटाफट जोड़ता हूँ
अपने आप को।।
इसी आपाधापी में
मैं
करने लगता हूँ
यात्रा
दिनों की।
और पहुँच जाता हूँ
आत्मीयता के पास
विश्रांत होने।
जहाँ
बदल चुका होता है
दृश्य,
बदल चुकी होती है
दृष्टि।
और घोषित कर दिया गया होता है
सबकुछ
अपरिचित
अनजान
उपेक्षित।
इसी मोड़ पर
बस इसी मोड़ पर
मैं
खंडित होकर
टूट जाता हूँ
पुन: जुड़ाव के लिए ।।
अन्वेषी

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