कविता ! “भुला के गांव की मिट्टी”
“भुला के गांव की मिट्टी”
भुला के गांव की मिट्टी, तूने शहरों को अपनाया।
भला ऐसा क्या शहरों में,तूने अपनों को बिसराया।।
कहां वो प्यार अपनों का, वो भोली शक्लें अपनों की।
न सौंधी खुशबू मिट्टी की, न ही वो वाणी अपनों की।।
समेटे खेत गमलों में,वो सब खलिहान कमरों में।
न मिलते खिस्से टी. वी.में,न हैं रिस्ते मोबाइल में।।
जब से आए शहरों में,क्यों खोए हो बस अपने में।
दुबक कर इन प्राचीरों में,क्यों सिमटे हो यों कमरों में।।
न कोई जुगनू दिखता है,न है अपनों का ही साया।
भगा था तू ही गांवों से ,बता पैसों से क्या पाया।।
मिला जो लिट्टी चोखा में ,नहीं वो प्यार बर्गर में।
मिला जो स्नेह अमिया में, नहीं वो प्यार पिज्जा में।।
पैसों के ही लालच ने, तुम्हें अपनों से बिसराया।
कम पैसों में भी हमने तो, देखो प्यार बरसाया।।
जो स्वाद था कुल्हड़ लस्सी में, वो स्वाद कहां है लिमका में।
जो स्नेह था अपनी बोली में, वो स्नेह नहीं है हिंगलिस में।।
बताऊं मैं तुम्हें कैसे कि ,ये तो थी तुम्हारी भूल।
भुला कर नाते रिस्तों को ,चले थे तुम ही हमसे दूर।।
लगी है अब जो तुमको चोट, तो आई है हमारी याद।
भुलाते तुम न जो हमको, तो क्यों कर होती ऐसी बात।।
जब बोई है तूने नफरत, न कर यों प्यार की आशा।
हमारे दिल तो सच्चे थे, सिखाई तुमने ही ये भाषा।।
कवि – अशोक राय वत्स
रैनी, (मऊ) , उत्तरप्रदेश
मो.8619668341
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