नई रचना -गैरहाजिर यादें

गैरहाजिर यादें

अलसुबह नींद ने धोखा दिया
और मिला भोर की
मंडराती तितलियों के पंख से
पिछली उन्चास रातों का
हिसाब नदारत था,
बस खंगाला लिया अपना भी बही खाता
और पिछली उन्चास रातों का
हिसाब गैरहाजिर……
जाने उन रातों में
सो भी सकी हूं या नहीं
बस मिल रही हैं
कुछ खटपट यादें
नींबू जितनी खट्टी
मिठास जितनी मीठी
रेशम जितनी रेशमी
और संगीत जितनी सुरीली
हां उन यादों से
भूमध्य रेखा के चारों ओर
एक रेखा खींची जा सकती है
बिल्कुल सीधी सपाट
ताकि इन पर लिखे
बारहखड़ी का हर अक्षर
पढ़ा जा सके
और यह भी कि
गैरहाजिर लम्हों का
बही-खाता दुरूस्त हो….
जरूरी है इन खटपट यादों को
अभी ही सहेज लिया जाए
क्या पता अगले बसंत तक
इनका ठहर पाना
मुमकिन न हो
तुम्हारी तरह…..।

कवित्री – पूजा राय

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