नमन ! नेताजी ने देशभक्तों पर छोड़ी अमिट छाप, किये ब्रितानी हुकूमत के दांत खट्टे

नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती पर एक रिपोर्ट

गाजीपुर(उत्तर प्रदेश),23 जनवरी 2019। राष्ट्र के सच्चे गौरव, राष्ट्रनायक और ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’तथा जयहिंद का नारा बुलन्द कर भारत माता की दासता की बेड़ियों को काटने का बीड़ा उठाने वाले वीर सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक के प्रसिद्ध वकील जानकीनाथ बोस व प्रभावती के पुत्र के रूप में हुआ था।प्रबल मेधाशक्ति और साहस के कारण उन्होंने जिस भी कार्य को करने का बीड़ा उठाया, उसे पूरा किया। अपने लगन और मेहनत के बल पर उन्होंने 1915 में प्रेसिडेंसी कालेज से एफ.ए. तथा 1918 में स्कार्ट चर्च कॉलेज से बी.ए आनर्स की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके उपरांत परिवार की आज्ञा को शिरोधारा करते हुए अपनी मर्जी के विरुद्ध आईसीएस बनने के लिए लंदन जाकर आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण कर भारतीयों का गौरव बढ़ाया। आईसीएस बनने के बावजूद ब्रितानी हुकूमत की दासता अस्वीकार करते हुए आईसीएस की डिग्री ठुकरा कर स्वदेश आ पहुंचे। दासता की बेड़ियों में जकड़े भारतीयों की दयनीय स्थिति देखकर उनका मन विद्रोह कर उठा और वे स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े। महात्मा गांधी और देशबंधु चितरंजन दास से मिलकर उनके निर्देशों के अनुरूप स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय सहयोग आरंभ कर दिया। उनकी निष्ठा और लगन के चलते उन्हें 1921 में बंगाल कांग्रेस कमेटी का प्रचार संयोजक बनाए गए। उसी वर्ष नवंबर में प्रिंस आफ वेल्स ड्यूक आफ विंडरशन के भारत आने पर उनको बाइकाट करने का प्रस्ताव पास हुआ और कोलकाता में व्यापक हड़ताल हुआ। इससे क्रूद्ध ब्रितानी हुकूमत ने चितरंजन दास, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और सुभाष चंद्र बोस को 25 दिसंबर 1921 को बंदी बनाते हुए 6 माह का कारावास की सजा दे दी। जेल से छूटने के बाद उन्होंने और तीव्र गति से आंदोलन को धार देना शुरू किया और अपने लोकप्रियता के बल पर वे 1923 में बंगाल कांग्रेस कमेटी के सचिव बने। देश को आजाद कराने के लिए दिन रात प्रयास करते हुए देशभक्तों की काफी तादाद बढ़ाई जिससे तंग आकर ब्रितानी हुकूमत ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। ब्रितानी हुकूमत के विरोध के कारण उन्हें जेल में तरह-तरह की यातनाएं दी गई जिसके चलते हुए वे जेल में काफी बीमार हो गए। बीमारी की अवस्था को देखते हुए सरकार ने उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया करने का फैसला किया कि वह देश में नहीं रहेंगे और अपना इलाज विदेश में करायेंगे। जेल से छूटकर नेताजी यूरोप गए और वियना में रखकर इलाज कराने के बाद स्वस्थ होते ही पुनः स्वदेश लौटे। देश में उन्होंने श्रमिकों और मजदूरों की इकाइयों का गठन कर कांग्रेस को मजबूती प्रदान की। इसके चलते 1928 में उन्हें बंगाल कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। कांग्रेस पार्टी के 1928 के वार्षिक अधिवेशन में उन्होंने सुझाव दिया कि कांग्रेस का मूल उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्त करना घोषित किया जाए। पुराने कांग्रेसी नेताओं को उनका यह प्रस्ताव रास नहीं आया ।अपने कड़ी मेहनत और अंग्रेजो के विरुद्ध विद्रोह के कारण सरकार ने 1931 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया परंतु बाद में उन्हें छोड़ना पड़ा। इसके उपरांत 1932 में उन्होंने कराची में ब्रिटिश सरकार के क्रियाकलापों के तीव्र विरोध का आह्वन किया तो सरकार ने उन्हें वही नजरबंद कर जेल में डाल दिया। पुनः बीमार होने की अवस्था में उन्हें छोड़ा गया और उन्होंने विदेश में 3 वर्ष रह कर अपना इलाज कराया। उस दौरान भी वह ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाते रहे। वर्ष 1934 में पिता की मरणासन्न अवस्था की जानकारी पर सरकार ने सिर्फ 1 माह के लिए घर आने की अनुमति इस शर्त पर दी कि वह सिर्फ अपने घर पर ही रहेंगे। इसके चलते एक माह बाद उन्हें पुनः यूरोप जाना पड़ा। विदेशों में रखकर नेताजी ने भारतीय नौजवानों व स्वतंत्रता आंदोलन के रणबांकुरों के मध्य अपनी घुसपैठ काफी गहरी कर ली। उसी दौर विदेश में रहते हुए ही वर्ष 1936 में उन्हें ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का महासचिव बनाया गया। इसके उपरांत कांग्रेसी नेताओं ने अंग्रेजी सरकार से नेताजी को वापस बुलाने की मांग की और नेताजी भारत आते समय रास्ते में गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गये। वर्ष 1937 में जेल से काफी बीमार अवस्था में छूटकर पर सरकार उन्हें देश में नहीं रहने देना चाहती थी, फलस्वरूप विदेश जाकर भारत के स्वाधीनता के लिए अभियान चलाकर स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई गति प्रदान की।अपनी लगनशीलता व कार्य कुशलता के बल पर 1938 में हुए ऑल इंडिया कांग्रेस के सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए और इसके उपरांत देशवासियों में नई चेतना का संचार हुआ और लोग आजादी के लिए अपनी कुर्बानी देने में को तैयार हो गये। इनकी बढ़ती लोकप्रियता कुछ नरमपंथी कांग्रेसियों को रास नहीं आई फलस्वरूप कांग्रेस गरम दल और नरम दल दो खंडों में विभाजित हो गया। गरम दल नेताजी के आदेशों पर मर मिटने को तैयार था और किसी भी कीमत पर देश को आजाद कराना चाहता था परन्तु कुछ कांग्रेसियों द्वारा इसका विरोध होते देख नेताजी ने अप्रैल 1939 में कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और फिर फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की। फारवर्ड ब्लाक में ऐसे लोगों की अधिकता रही जो अंग्रेजों से बिना समझौता के हर स्तर पर लड़ाई लड़कर देश को स्वतंत्र कराना चाहते थे। नेताजी ने दुश्मन के दुश्मन को दोस्त मानकर अपनी रणनीति बनाई और रूस, जर्मनी, जापान आदि देशों से सहयोग लिया। मार्च 1940 में रामगढ़ बिहार में गर्मदल की बैठक की तो सरकार के ब्लैक होल तोड़ने के आरोप में नेताजी को गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया। जेल में नेताजी ने भूख हड़ताल कर दिया और कहा कि सरकार या तो मेरे विरुद्ध मुकदमा चलाए या फिर मुझे छोड़े। तंग आकर अंग्रेजी सरकार ने 5 दिसंबर 1940 को उन्हें इस शर्त पर रिहा किया कि वे अपने घर में नजरबंद रहेंगे। अपने मकान के बंद कमरे में रखकर नेताजी ने देश से बाहर निकलकर स्वतंत्रा आंदोलन को एक नई धार देने का निर्णय कर अपने को एक कमरे में बंद कर लिया और वही रहते हुए उन्होंने अपनी दाढ़ी बढ़ाकर वेशभूषा बदल ली और एक दिन जियाउद्दीन के भेष में ब्रितानी हुकूमत की आंखों में धूल झोंकते हुए घर से बाहर निकल कर काबुल जा पहुंचे और फिर भेष बदलकर 28 मार्च 1941 को बर्लिन जा पहुंचे। उसी दरम्यान रासबिहारी बोस ने स्वतंत्रता आंदोलन की अपनी सारी जिम्मेदारी अपनी बढ़ती उम्र के कारण नेताजी सुभाष चंद्र बोस को सौंप दी। नेताजी ने जापानी जेलों में बंदी बनाए गए ब्रितानी फौज के भारतीय सैनिकों को मुक्त कराकर उन्हें अपनी सेना में भर्ती किया।उन्होंने 8 जुलाई 1943 को आजाद हिंद फौज सरकार का गठन कर ब्रिटिश हुकूमत की नींद उड़ा दी। आजाद हिंद फौज को जापान सरकार के साथ ही साथ 8 राष्ट्रों ने मान्यता प्रदान की तथा 46 देशों ने सहयोग किया। दिल्ली चलो तथा जय हिंद के नारों के साथ स्वतंत्रता आंदोलन से लबरेज इस फौज में बड़ी वीरता के साथ अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे किये। कोहिमा तथा इंफाल में उन्होंने अपने परचम लहराए और हर किस्म की परेशानियों और उलझनों से लड़ते हुए सदैव आगे बढ़ती रही। उस भयंकर लड़ाई में 15 अगस्त 1945 को बरसात के कारण जापान ने आत्मसमर्पण किया फलस्वरूप आजाद हिंद फौज को लड़ाई बंद करनी पड़ी। इससे परेशान हो नेताजी ने जापान जाने का निश्चय किया और विमान से गुप्त स्थान की ओर प्रस्थान कर गये। उसी समय 18 अगस्त 1945 को जापान सरकार ने घोषणा की कि नेताजी का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और नेताजी की मृत्यु हो गई। यह सूचना पाकर देशवासी स्तब्ध रह गये परन्तु लोगों ने इसपर पूर्ण विश्वास नहीं किया। नेताजी ने आजादी का जो बिगुल बजाया वह देशवासियों और आन्दोलनकारियों द्वारा जारी रहा और उन क्रांतिकारियों के प्रयासों के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार को अन्ततः देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। अपनी अदम्य साहस और वीरता के प्रतिमूर्ति नेताजी सुभाष चंद्र बोस ब्रितानी सरकार द्वारा युद्ध अपराधी घोषित किए गए थे। स्वतंत्रता आन्दोलन के अमर सपूत के अंतिम समय की उनकी पूरी जानकारी आज भी देशवासियों को उपलब्ध नहीं हो सकी है। उनके संबन्ध में अनेकों बार उनके जीवित होने की बातें भी उछलती रहीं। देशवासियों की मांग पर नेताजी की मृत्यु के संबंध में सत्यता की खोज के लिए भारत सरकार द्वारा शाहनवाज समिति तथा खोसला आयोग का गठन किया गया परन्तु इनकी रिपोर्ट मान्य नहीं हो सकी। इस पर 28 अगस्त 1978 को प्रधान मंत्री भारत सरकार मोरारजी देसाई ने उपरोक्त दोनों रिपोर्टों को निरस्त कर दिया। नेताजी की तथाकथित मृत्यु का पर्दाफाश हो सके इसके लिए एक जनहित याचिका कोलकाता हाईकोर्ट में दाखिल की गई। इस पर सरकार ने 1998 में मुखर्जी आयोग का गठन किया गया। रिपोर्ट में कहा गया कि जिस विमान दुर्घटना की बात कही गई है वह दुर्घटना हुई ही नहीं थी। इस रिपोर्ट से भारत सरकार सहमत नहीं हुई और रिपोर्ट को खारिज कर दिया। सत्य क्या रहा यह आज भी देशवासियों के सामने चुनौती बन कर खड़ा है और नेताजी की मृत्यु कब, कहां और किन परिस्थितियों में हुई, इसकी जानकारी देशवासियों को आज तक नहीं मिल सकी है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस द्वारा 75 वर्ष पूर्व 30 दिसम्बर 1943 को अंडमान-निकोबार में तिरंगा फहराने की अमर स्मृतियों को ताजा करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 30 दिसम्बर 2018 को पोर्ट ब्‍लेयर में नेताजी स्‍टेडियम में उनकी याद में वहां 150 फीट ऊंचा ध्वज फहराकर उन्हें नमन किया। उन्होंने रॉस द्वीप को नेताजी सुभाष चंद्र द्वीप,नील द्वीप को शहीद द्वीप तथा हैवलॉक द्वीप को स्वराज द्वीप का नाम देते हुए कहा कि आज़ाद हिंद सरकार के पहले प्रधानमंत्री सुभाष बाबू ने अंडमान की इस धरती को भारत की आज़ादी की संकल्प भूमि बनाया था। आजादी के नायक हमेशा अमर रहेंगे।
ज्ञातव्य है कि “तुम मुझे खुन दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” का उद्घोष कर ब्रितानियों के दिल में भारतीयों का खौफ पैदा करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 30 दिसंबर, 1943 को पोर्ट ब्लेयर में तत्कालीन जिमखाना ग्राउंड (अब नेताजी स्टेडियम) में राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर घोषणा की थी कि अंडमान और निकोबार द्वीप स्वतंत्र होने वाला पहला भारतीय क्षेत्र है। बताते चलें कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानियों ने द्वीप को अपने कब्जे में कर अंडमान द्वीप को शहीद और निकोबार द्वीप को स्वराज नाम दिया और इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) के जनरल ए डी लोगनाथन को इसका गवर्नर भी नियुक्त किया था। सत्यता यह है कि देशवासी आज भी इस सत्य से अनभिज्ञ हैं थे राष्ट्रहित में अपने जीवन को न्योछावर करने वाले महामानव नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जीवन का अंतिम चार पांच दशक कहां और कैसे बीता इस रहस्य से पर्दा उठाने का इंतजार हर देशवासी कर रहा है पर हम इस राशि से कभी पर्दा उठेगा या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता।
देश को स्वतंत्र कराने में अपने संपूर्ण जीवन को बलिदान करने वाले महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राष्ट्रभक्त नेताजी सुभाष चंद्र बोस को उनके जन्मदिन पर हार्दिक नमन……………. डा.ए.के.राय

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