पंडित दूधनाथ पाण्डेय की पुण्यतिथि दो फरवरी पर विशेष


          (गौरीशंकर पाण्डेय सरस)
झुरमुट के अंतराल में फूल का विकसित होता पौधा, अपने रूप रंग मकरंद गंध से अंजान षट ऋतु और जाड़ा गर्मी बरसात जैसे मौसम मे‌ं हवा के थपेड़े सहता बेफिक्र लचकती डालियों पर अपनी मस्ती में झूमता है। हवा के सूदूर ‌वाही झोंके जब उसके गंध और‌ मकरंद के सम्मिलाप से फिज़ा में खुशबू घोलते हैं तब उसके सुगंध की हलचल उसके कानों तक पहुंच कर उसे सुखद एहसास की अनुभूति कराती है।
    इसी से मेल खाता स्वभाव था पं०दूधनाथ पाण्डेय का। पूर्वांचल के मऊ जनपद की गंवई मिट्टी की साहित्यिक उपज थे। उनका जन्म चार मार्च 1913 को मऊ के डुमरांव गांव में हुआ था।
पं०दूधनाथ पाण्डेय वीर रसावतार पं०श्यामनारायण पाण्डेय के भ्रातिज तथा संस्कृत विद्वान पंडित सत्यनारायण पाण्डेय के दो पुत्रों में बड़े थे। वे श्याम नारायण पाण्डेय के समकक्ष सहपाठी और अच्छे मित्र भी थे। दोनों की मेधा शक्ति व साहित्य प्रेम अनूठा था, बस फर्क था तो साहित्यिक भाषा का। एक ने संस्कृत साहित्य का वरण किया तो दूसरे ने हिंदी का। इसके इतर  दूधनाथ पाण्डेय का त्रिभाषा (हिन्दी संस्कृत और अंग्रेजी)पर एक छत्र अधिकार था। वे एम०ए०बीटी की परीक्षा पास करने के उपरान्त अध्यापन कार्य करने कलकत्ता चले गए।आपका अपने बत्तीस वर्षों के अध्यापक जीवन काल में कलकत्ता के कवियों साहित्यकारों और‌  प्रकांड विद्वानों सहित देश के नामचीन कलमकारों से भावनात्मक और हृदयात्मक संबंध रहा। आजादी के दीवानों का देश हित में साथ देने के वास्ते ब्रिटिश हुकूमत द्वारा इन्हें जेल‌ की सलाखों में भी रखा गया।
    नव्बे की दशक में अपने पैतृक गांव आकर साहित्य की समृद्धि और विकास हेतु साहित्य सृजन में रम गया। उन्होंने अनेक साहित्यिक ‌कृतियों का लेखन किया जो अब भी अप्रकाशित हैं। जिनमें रामभक्त तुलसी,हर-हर महादेव, सीता का पाताल प्रवेश,कलरव (बाल रचना)सहित आत्म कथा और संस्मरण शामिल हैं।
    तीन दशक पुर्व मैं उनका साहित्यिक प्रेम जानने की उत्सुकता से उनके पास दस्तक दिया था। मैंने बातचीत के बढ़ते क्रम में मौका पाते ही दो सवाल बेहिचक दागा। पहला यह कि राम और भरत के प्रेम को किस नजरिए से देखते हैं। दूसरा यह कि सीता और लक्ष्मण के अन्यत्र प्रसंग पर कुछ खास बताने की पेश‌कश थी। दोनों विषयों पर जिस अध्यापक शैली और माधुर्य ललित भाषा प्रधानता में अपनी कलम का परिचय कराया वाकई काबिले तारीफ था। राम के प्रति लक्ष्मण की श्रद्धा और समर्पण पर रावण ने मंदोदरी से कहने लगा
*धन्य है माता पिता गुरूकुल वहां का धन्य है। जिसमें पले है वीर द्वय वातावरण भी धन्य है।।
*छप छप करती पहुंच गई जब लक्ष्मण की नौका उसपार।पर सीता कु जीवन‌ नैया अब-तब करती थी मझधार।।*
     जब लक्ष्मण सीता को गहन जंगल में छोड़ कर जाने लगे और जाते समय वापसी संदेश कुछ पेशकश पर सीता ने जो कहा जो कितना मार्मिक था दूधनाथ पाण्डेय की कलम‌ का जादू आप सबके लिए यूं-
*सुखी रहें देवर त्रय‌ मेरे,है मेरी हार्दिक अभिलाषा।जीवन में ना भूल सकेंगे सबसे यही बस करती‌ आशा।।*
    इसके पहले पाण्डेय जी की अनेक कृतियां अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ‌हो चुके थे।जिनमें की सर्गो मे‌ रचित रामदूत महाकाव्य प्रमुख हैं। उन्होंने बात चीत में अनेकानेक भक्ति प्रधान अपनी रचनाओं का जिक्र किया।जिनमें रावण का अंगद के साथ कूटनीतिक चाल जैसे:
*जिसने किया है बाप बध मां मांग का सिन्दूर धोया। शत्रु को निज राज देकर सर्वथा तुमको डुबोया।छी: उसी की चाकरी में हाय जीवन‌ तुम बिताते। शत्रु का गुणगान करने में नहीं कुछ भी लजाते* आदि।
     आखिर मौत ने अपने नियतानुसार दो फरवरी उन्नीस सौ अंठानबे को अपने क्रूर पंजों से झपट्टा मारकर ‌हम सबसे अलग कर गई।
     आज पं.दूधनाथ पाण्डेय हमारे मध्य नहीं हैं
लेकिन उनके विचार व साहित्य हमारे प्रेरणा स्रोत हैं।
ऐसे महान कवि साहित्यकार को उनकी पुण्य तिथि पर सादर नमन, विनम्र श्रद्धांजलि ………

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