सामाजिक सद्भाव को दर्शाते हैं व्रत त्यौहार

भारतवर्ष में अनेकों मान्यताएँ एवं धारणाएँ हैं, उसी के अनुरुप व्रत एवं त्यौहार भी हैं। यूं तो सभी व्रत एवं त्यौहार ईश्वर के प्रति लोकआस्था को दर्शाती हैं, वहीं दूसरी तरफ त्यौहार हमारे समाज के बीच सद्भावना एवं प्रेम का संदेश देते हैं।
      ज्योतिष सेवा केन्द्र ज्योतिषाचार्य पंडित अतुल शास्त्री के अनुसार, आम तौर पर व्रत ईश्वर के प्रति हमारी आस्था दिखाती हैं फिर भी कुछ त्यौहार विशेष प्रयोजन के लिए होते हैं। उदाहरण स्वरूप कुछ व्रत पतिव्रता पत्नी अपने पति की लम्बी आयु के लिए करती हैं तो वहीँ कुछ व्रत मां अपने बेटों के लिए करती हैं।
      मूल रूप से देखें तो भारतीय परिवेश में जहाँ हमारा समाज पितृ सत्तात्मक है वहीं महिलाओं द्वारा किए जा रहे सभी व्रत उनकी मंगल कामनाओं के लिए किए जाते हैं।
जिउतिया, माघ सकट चौथ या तिलकूट चौथ तथा ह छठ पर्व, सभी व्रत बेटों के लिए मां द्वारा किया जाता है। माँ पुत्र प्राप्ति की इच्छा के साथ और पुत्र प्राप्ति के बाद कृतज्ञता जताने के लिए यह व्रत करती हैं। छठ पर्व महज़ पुत्रों के लिए ही नहीं बल्कि बेटियों की शुभेच्छा से भी भरा हुआ है। इसके कई गीतों में बेटियों की कामना की गई है। ऐसा ही एक गीत है पाँच पुत्तर, अन्न-धन, धियवा अर्थात बेटी मंगबो ज़रूर। यानी बेटे और धन धान्य की कामना के साथ एक बेटी की कामना भी की गई है। इसी तरह एक और गीत है कि रुनकी झुनकी बेटी माँगिला, पढ़ल पण्डितवा दामाद, हे छठी मइया… ये गीत सदियों पुराने हैं लेकिन छठ के मौके पर आज भी गाए जाते हैं। इस गीत में रुनकी झुनकी का मतलब स्वस्थ और घर आंगन में दौड़ने वाली बेटी है। इसी पंक्ति में दामाद की भी मांग की गई है, पर गौर करें कि उस दामाद की कल्पना शरीर से बलिष्ठ नहीं, बल्कि मानसिक रूप से बलिष्ठ की है। इस गीत में छठी मइया से पढ़े लिखे दामाद की मांग की गई है। तब हमारा समाज आज के मुकाबले भले ही अनपढ़ और पिछड़ा रहा हो, पर उस वक्त भी लोग समझते थे कि राजा तो अपने देश मे ही पूजा जाता है लेकिन विद्वान की पूजा सर्वत्र होती है (स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते)। इस सिद्धांत की औपचारिक जानकारी उस समाज को भले न हो, लेकिन विद्या के महत्व से वह परिचित थे। इसी तरह ऐसे कई गीत हैं जिनमें सिर्फ माँओ ने ही नहीं बल्कि पिता ने भी बेटी की लालसा से व्रत किए हैं।
   आज समाज के बदलते परिवेश में जहाँ स्त्री पुरूष समान रूप से एक दूसरे की ज़िंदगी में अपनी हिस्सेदारी को ज़िम्मेदारी से निभा रहे हैं, वहीं उनके द्वारा रखे जा रहे व्रत सम्बन्धों में मिठास घोल देती है। यह होना भी चाहिए क्योंकि अगर गृहस्थी की गाड़ी को दो पहियों पर चलना है तो ज़रूरी है कि वह दोनों पहिए शारीरिक रूप से स्वस्थ और मानसिक रूप से सम्पन्न हों।
      पुरुषों में सिर्फ पति ही नहीं पिता भी अब बेटियों की तरफ अधिक संवेदनशील हो चुके हैं। वैसे यह बात जगज़ाहिर है कि हमेशा से माँ का झुकाव बेटे की तरफ तो पिता का झुकाव बेटी की तरफ रहा है लेकिन अब जब बेटियां हर क्षेत्र में खुद को साबित कर रही हैं और बेटे अपने माता पिता की तरफ उदासीन हो रहे हैं, तब से बेटियों की तरफ समाज का नज़रिया बदल गया है।
     आज महिला पुरूष के समान कर्त्तव्यों से ही एक स्वस्थ समाज की रचना की जा सकती है। सो यदि पुरूष, नारी को अपने से कमतर मानने की बजाय अपने बराबर का माने और उसके बेहतर स्वास्थ्य के लिए व्रत त्यौहार में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले तो जहां उनके सम्बन्धों में मधुरता आएगी वहीं एक विकसित समाज का उदय होगा।

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