कवि हौशिला अन्वेषी की नयी रचना

कशमकश
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गांव छोड़कर
जब हम
शहर आए ,
गांव के लिए।
सामान में हमारे साथ
कछ नहीं था
सिर्फ एक गट्ठर था
यादों का ।
खोले
और बैठ गए,
खोलकर
कर से काम
मन से राम की तरह ।
घूमने लगे
इर्द-गिर्द
उसी गट्ठर के
भागे
दौड़े
सोचे
समझे
उसी गट्ठर के लिए।
जिसमें आदर्श था
प्रेम था
भाईचारा था
एक पूरा का पूरा वातावरण था
मौसम भी था
खान-पान
रहन-सहन
नाते रिश्ते थे ।
ताल तलैया पोखर
पेड़ पौधे
सब थे
सब के सब
बोलते थे
बतियाते थे
सपने में आते थे
हंसाते थे
रुलाते थे ।
चले जाते थे।
मैं फिर गांव गया
अपने ठाँव गया
मगर न वहां
मौसम था
न हवा
न लोग ,
जिनके मन में प्यार था।
उन्हें तो बस
समय का इंतजार था ।
और था तो वहाँ
बस
एक मायूस चेहरा
भीतर से खौलता हुआ
हमने देखा
हमें शहर याद आया
हम अपने भीतर भुनभुनाए
मायूस हुए
कुछ गाए
फिर शहर लौट आए ।
एक हिकारत की
नई गठरी साथ लाए
खोले ,देखे ,बतियाए
मगर कुछ नहीं पाए ।
हमें फिर गांव याद आया।
बार-बार याद आया
भीतर ही भीतर रुलाया ,
छूटे हुए
प्रथम प्यार की तरह ।।
बार बार
बारंबार ।।
✍️…अन्वेषी

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