कविता ! हौशिला अन्वेषी

विश्वासों के उड़े परखचे,
अब होता विश्वास कहाँ।
नाते रिश्ते लटक गए हैं ,
अब होते हैं पास कहाँ ।।

नेता जी की कथा निराली,
उनसे हमको आश कहाँ ।
हरिश्चंद्र के वंशज डूबे,
अब उनका इतिहास कहाँ ।।

ऊबड़ खाबड़ हुई व्यवस्था,
होता सही विकास कहाँ ।
दिन भर तिकड़म बोनेवाले,
होते अपने खास कहाँ ।।

राजनीति में झूठ चल रहा,
इसमें वे नापास कहाँ ।
अत्याचारी इस दुनिया का,
होता पर्दाफास कहाँ ।।

पगलाए भक्तों को देखो,
होता सत्यानाश कहाँ ।
मिथ्याचारी इस निजाम का,
होता यहाँ विनाश कहाँ ।।

रोज गुलामी ढ़ोनेवाला,
होता है विंधास कहाँ ।
मानवता के प्रबल शत्रु को,
दर्दों का एहसास कहाँ ।।

रचनाकार – अन्वेषी

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