कविता ! “मंजिल यह अधूरी लगती है”

“मंजिल यह अधूरी लगती है”

हम दौड़ रहे हैं बचपन से,पर मंजिल यह अधूरी लगती है,
हर सुबह सवेरा होता है,पर उड़ान अधूरी लगती है।
हैं मजबूत इरादे पर , हम पीछे ही रह जाते हैं,
उठ छोड़ निरसता दौड़ पुनः ,मंजिल यह हमसे कहती है।

क्या सोच रहा है पथिक यहाँ, उठ मंजिल है तुझे पुकार रही,
सूरज की किरणों को देखो, कैसे हैं प्रकृति को दुलार रही।
यदि बढना है आगे तुमको, मन को न निराश करो यों तुम,
मत भूल पथिक तू दौड़ अभी, है विजय तुझे अब पुकार रही।

बचपन से लेकर यौवन तक, हर बाधा को पार किया तुमने,
जीवन की आपा धापी में भो,सबका साथ दिया तुमने।
कुछ और सोचने से पहले, तुमको यह वादा करना होगा,
तुम कदम न रोको अब डर से, हर दिल को जीत लिया तुमने।

जो दौड़ रहे हैं जीवन में,आशा है वो कुछ पाएंगे,
आओ हम भी मिलकर दौड़ें,वर्ना हम सब पछताएंगे।
कठिन परिश्रम और दृढ़ निश्चय, सबको अब अपनाना है,
वर्ना मानव जीवन में बस बेबस ही रह जाना है।

      कवि - अशोक राय वत्स
          रैनी (मऊ ) उत्तरप्रदेश
            मो. 8619668341

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