कविता ! चोट लगी जब भी दिल पर

“चोट लगी जब भी दिल पर”

चोट लगी जब भी दिल पर,मन मेरा हँस कर भूल गया।
मेरा इतना सा अल्हड़पन ,मेरे जीवन का संताप बना।।

मैं अक्सर चुप ही रहता हूँ, दुनिया के सुनकर के ताने।
अपने भी तो बस देते हैं, अकसर दु:ख की ही सौगातें।।
आंसू पीना और खुश रहना, मेरी आदत में समा गया।
चोट लगी जब भी दिल पर,मन मेरा हँस कर भूल गया।।
मेरा इतना सा अल्हड़पन ,मेरे जीवन का संताप बना।।

जब-जब मेरे कदम बढे आगे, दुनिया ने आकर के रोका।
जो बन न सका मेरा अपना, उसने ही खुशियों को रोका।।
लोगों के ताने सहने में ही,मेरा तो यौवन ढल ही गया।
चोट लगी जब भी दिल पर,मन मेरा हँस कर भूल गया।।
मेरा इतना सा अल्हड़पन, मेरे जीवन का संताप बना।।

काश कोई अपना होता, मैं उसको गले लगा लेता।
अपनी इस सूनी बगिया को,पल दो पल को महका देता।।
पर भाग्य रुठ गया मुझसे, मेरी खुशियों को लील गया।
चोट लगी जब भी दिल पर, मन मेरा हँस कर भूल गया।।
मेरा इतना सा अल्हड़पन ,मेरे जीवन का संताप बना।।

यदि मिलता अपनापन अपनों से, भर लेता मन के घावों को।
मन ही मन मैं हर्षा लेता, कर देता जन्नत जीवन को।।
देखो यह बगिया उजड़ी है,इससे मन मेरा बहक गया।
चोट लगी जब भी दिल पर ,मन मेरा हँस कर भूल गया।।
मेरा इतना सा अल्हड़पन , मेरे जीवन का संताप बना।।

रचना – अशोक राय वत्स
रैनी (मऊ) उत्तरप्रदेश

Views: 106

Leave a Reply