युद्ध ……

युद्ध

मेरे दोस्त तुम्हें नहीं लगता
कि कुछ रोज हमें
प्रेम नहीं करना चाहिए
अभी जबकि हवाओं में
बारूद की गंध है और
तितलियां बंदूकें बो रही हैं….
यह दौर भी कुछ वैसा ही है
जैसे ईसा पूर्व जनजाति कबीले
वर्चस्व की लड़ाईयां लड़ते रहे हों
उस दौर में कमस्कम यह तो था
युद्ध को युद्ध और
प्रेम को प्रेम की तरह
जिया जा सकता था
अब जबकि हर रात
सपने फर्श पर तैरते मिनारों से
छलांग लगाते हैं
मुश्किल है प्रेम भी और युद्ध भी
संस्कृतियां अपने उपनिवेश स्थापित कर रही हैं
और पुरातन सभ्यताएं
पुस्तकालयों में दम तोड़ रही हैं
बहुत ही अजीब सी
आवाज है उनके दर्द की
बस उसे मापने को
यन्त्र नहीं बनाए जा सकते
क्योंकि मापनी होगी फिर
मौत और प्रसव की पीड़ा भी
वैसे तो ये दोनों
अपने मूल स्वरूप में भिन्न हैं
एक आरंभ है दूसरा अंत
मगर दर्द के मामले में
जुड़वां हैं दोनों ही
वैसे ही जुङवा है
प्रेम और दर्द भी
हमें भी जीना होगा
अपने हिस्से का प्रेम और दर्द
मगर उस युद्ध के बाद
जिसे लड़ा जाना है
दो विसंगतियों के मध्य
दो सभ्यताओं के मध्य
संभव है हमें इस युद्ध में
अपने रक्त से लिखनी पड़े
शांति की गाथाएं
तो फिर मिलेंगे हम
इस युद्ध के बाद
युद्ध पश्चात की शांति के बाद
जीवित अथवा मृत
पर मिलेंगे जरूर।

कवित्री – पूजा राय

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