नवसंवत्सरोत्सव ! वैदिक नववर्ष, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत् 2076

वाराणसी (उत्तर प्रदेश),05 अप्रैल 2019। नवसंवत्सरोत्सव !वैदिक नववर्ष, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत् 2076 कल 06 अप्रैल, 2019 से आरम्भ हो रहा है।
सृष्टि की उत्पत्ति मानव के लिए आरम्भ से
ही जिज्ञासा व कौतुहल का विषय रही है। इस सम्बन्ध में प्रामाणिक साक्ष्य वेद में वर्णित है। सृष्टि की उत्पत्ति ब्रह्मा के द्वारा जिस समय की गई वही सृष्टि उत्पत्ति का समय है। इसे भारतीय सांस्कृतिक ग्रंथों के साक्ष्य के आधार पर चैत्र मास में स्वीकार किया गया है। भारतीय परंपरा में नवसंवत्सरोत्सव का विशेष महत्व है। ज्योतिष के ‘हिमाद्रि ग्रंथ’ में श्लोक है-
” चैत्रे मासे जगद ब्रह्मा संसर्ज प्रथमेअहानि। शुक्ल पक्षे समग्रंतु, तदा सूर्योदये सति।।”
अर्थात चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा ने जगत की रचना की।
भास्कराचार्य कृत ‘सिद्घांत शिरोमणि’ का निम्न श्लोक के अनुसार —
” लंकानगर्यामुदयाच्च भानोस्त स्यैव वारे प्रथमं बभूव।
मधे: सितादेर्दिन मास वर्ष युगादिकानां युगपत्प्रवृत्ति:।।”
अर्थात -लंका नगरी में सूर्य के उदय होने पर उसी के वार अर्थात् आदित्य (रवि) वार में चैत्र मास शुक्ल पक्ष के प्रारंभ के दिन मास वर्ष युग आदि एक साथ प्रारंभ हुए। इसीलिए आर्यों के सृष्टि संवत, वैवस्वतादि संवंतरारंभ, सतयुगादि युगारंभ, विक्रमी संवत, कलिसंवत:, चैत्रशुदि प्रतिपदा से प्रारंभ होते हैं। चैत्र मास में वसंत ऋतु में सर्वत्रा हर्षानुभूति का वातावरण रहता है।इस समय प्रकृति में पुष्पों का खिलना नवसंवत्सरारंभ की सूचना होती है।
पुष्पों का खिलना सृष्टि के महायज्ञ के प्रारंभ होने का संदेशवाहक है। पुष्प खिला है, महका है और नववर्ष अथवा नवसंवत्सर (नई पीढ़ी) का प्रारंभ हो गया। नई पीढ़ी नया संदेश लाती है-नया शिशु भी अपनी बंद मुट्ठी में नया संदेश लाता है।
‘ नव संवत्सर यानि हिंदू नव वर्ष का यह पर्व चैत्र सुदि प्रतिपदा अर्थात् मेष संक्राति के दिवस हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। वैज्ञानिक आधार पर यह पर्व ऐसे समय पर आता है जब मानव मन स्वयं ही हर्षित और उल्लसित होता है । इसे सूक्ष्मता से समझकर ही हमारे ऋषियों को नवसंवत्सरारम्भ का ज्ञान हुआ होगा। इसी आधार पर नवसंवत्सरारंभ का वर्तमान स्वरूप उभरकर आया। इसे अपने-अपने ढंग से अलग-अलग कहकर पुकारने के लिए सम्प्रदाय वालों ने अपने-अपने अनुयायी पंथ वालों को प्रेरित किया। पारसी, ईसाई, मुस्लिम आदि के द्वारा इसी परंपरा का अनुकरण किया गया। इन सबमें भी अपने-अपने ढंग से नववर्ष का पर्व मनाया जाता है।
पारसियों में यह पर्व नौरोज (नव वर्ष) के नाम से मनाया जाता है तो अंग्रेजों के यहां न्यू ईयर (अर्थात नववर्ष) के नाम से ही मनाया जाता है। पारसियों में यह पर्व सूर्य के मेष राशि में ही प्रवेश करने पर भारतीय परंपरानुसार ही मनाया जाता है। ईसाइर्यों द्वारा अपने यहां जनवरी, फरवरी के मासों को बहुत समय पश्चात जोड़ा गया है। उनके वर्ष का प्रारंभ भी वास्तव में मार्च से चैत्र ही होता है। प्रथम अप्रैल से आज भी हर देश में नया बजट वर्ष प्रारंभ होता है। अप्रैल चैत्रमास के लिए अति समीपस्थ मास है। इसी माह से बजट वर्ष अथवा ‘फाइनेंशियल ईयर’ का प्रारंभ होना भारत के विश्वसाम्राज्य के दिवसों में उसी की परंपराओं को शेष संसार के द्वारा स्वीकार करने का ही प्रमाण है। ईसाई लोगों के यहां सितंबर को सैप्टेंबर कहते हैं, अक्टूबर को ओक्टोबर, नवंबर को नोवंबर तथा दिसंबर को डिसेमबर कहा जाता है। इन्हें अंग्रेजी में लिखते समय भी संस्कृत के सप्तम, अष्टम, नवम् और दशम का ही रूप हम देखते हैं। इनका यह स्वरूप हमें ‘ग्रेगोरियन कैलेण्डर’ से पूर्व के उस काल का स्मरण कराता है जब सितंबर सातवां, अक्टूबर आठवां और नवंबर दिसंबर क्रमश: नवे व दसवें महीने वर्ष के ईसाईयों में हुआ करते थे। तब अपनी इस परंपरा के प्रारंभ में कहीं अर्थात् जहां से यह त्यौहार मनाने की परंपरा प्रारंभ हुई होगी, ईसाईयों के और भारतीयों के नववर्ष की तिथि एक साथ ही पड़ती रही होगी। ईसा पूर्व में ही यह काल रहा होगा।
नववर्ष के अवसर पर प्राचीनकाल में भारतीय लोग नववर्ष के आगमन को इसे अपने लिए एक वर्ष में किए गए कृत्यों के संदर्भ में एक लेखा जोखा के रूप में लेते थे। यज्ञ हवन किए जाकर सर्व मंगल कामना की जाती थी, तथा साथ ही सबकी बुद्घि सन्मार्गगामिनी हो ऐसी प्रार्थना परमपिता परमात्मा से की जाती थी। बसंत पंचमी और होलिका दहन के पश्चात् यह पर्व आता है। होलिका पर्व पर हम अपने दोषों को प्रतीक के रूप में अग्निदाह करते हैं, उन्हें पुराने वर्ष में ही छोड़ देते हैं। नववर्ष पर हम विधिवत पुन: स्वयं में नवजीवन का संचार हुआ पाते हैं, जो बसंत में प्राकृतिक रूप में भी हमें अनुभव होता है।
प्राचीनकाल में भारतीय लोग नव संवत्सरोत्सव पर प्रात:कालीन उदित होते सूर्य के प्रकाश में यज्ञ हवन करते थे। उगते सूर्य के प्रकाश को अपने जीवन-पथ के लिए मार्गदर्शक स्वीकार कर उसके प्रकाश को हृदयंगम करने का प्रण ले जीवन के रणक्षेत्र में सफलता की सीढिय़ां चढ़ते थे। इससे मानवता और प्राणिमात्र का भला होता था। मानवीय मूल्यों का विकास और मानव का उत्थान होता था। प्रात:कालीन सूर्य का उदयोपरांत उत्थान मानव को जीवन के प्रति उत्थानवाद में ही तो प्रेरित करता है।
भारत में विक्रमी संवत महाराजा विक्रमादित्य के राज्याभिषेक की तिथि है। यही आजकल भारतवर्ष का नव संवत्सरारंभ दिवस भी है। वैदिक संस्कृति को विस्मृत कर उसके स्थान पर अवैदिक धारणाओं, मान्यताओं और परंपराओं को स्वीकृति प्रदान कर विश्व ने अपना बहुत भारी अहित किया । ये अवैदिक धारणाएं, मान्यताएं और परंपराएं प्रतिवर्ष और भी अधिक प्रचार और प्रसार प्राप्त कर मानवता को अपने शिकंजे में कसती जा रही हैं।
महीनों का नामकरण: मनुस्मृति अध्याय एक श्लोक-21 में – ” सर्वेशांतुस नामानि कर्माणि च पृथक पृथक।
वेद शब्देभ्य: एवादौ पृथक संस्थाश्च निर्ममे।।”
अर्थात, उस परमात्मा ने सृष्टि के आदि में सबके पृथक-पृथक नाम, क्रम और व्यवस्था वेदों के शब्दों को लेकर ही बनाई। सृष्टि के आद्य ऋषियों की वाणी का उनके शब्दों के अनुसार ही वाच्य अर्थ का प्रादुर्भाव होता है। अर्थात् उनके शब्दों को लेकर ही पदार्थों की परंपरा प्रचलित होती है।’’
तदानुसार मध्श्च माध्वश्च वासंति का वृत यजुअ.13 मंत्र 25 के अनुसार मधु तथा माधव शब्दों को लेकर बसंत ऋतु के मासों का नामकरण किया गया। यह नामकरण आज के चैत्र और बैसाख मास का होगा।
इसके पश्चात चंद्रमा और सूर्य की गति के आधर पर भी मासों के नाम प्रचलन में आये। जिस पूर्णिमा को जो नक्षत्र पड़े वह पूर्णिमा उसी नक्षत्र के नाम पर होगी। जिस पूर्णिमा को चित्र नक्षत्र हो वह पूर्णिमा चैत्री और वह मास चैत्रमास कहलाता है। इसी प्रकार अन्य मासों के विषय में जानना चाहिए। संक्राति के संक्रमण के आधार पर जो मास गणना की जाती है वह सूर्य की गति के आधार पर होती है। यदि चंद्रमासों का नवसंवत्सरारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को होता है तो सौर संवत्सरारंभ मेष संक्राति के दिन होता है। चंद्रमासों को हिंदू-वैदिक-ज्योतिष के आधार पर मान्यता प्रदान की गई। वैदिक विश्व साम्राज्य के स्वर्णकाल में यह मान्यता एक परंपरा के रूप में विश्व के कोने कोने में प्रसारित हुई।
ईसाईयत का दृष्टिकोण इस विषय में इस्लाम की अपेक्षा अधिक खुला हुआ और व्यापक है।
उसने विज्ञान की बारीकियों और प्रकृति के नियमों को समझकर अपने आप में संशोधन किए। इसीलिए आज का ग्रेगोरियन कैलेण्डर मान्यता प्राप्त कर सका है। इसके वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने इस कैलेण्डर को आज के संसार में विश्वव्यापी मान्यता प्रदान करा दी है।
नवसंवत्सरारंभ प्राकृतिक और वैज्ञानिक रूप से चैत्र माह में ही मनाना उचित है क्योंकि उसके पीछे प्राकृतिक और वैज्ञानिक कारण नीहित है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का ऐतिहासिक महत्व :
* इसी दिन से सृष्टि संवत 1,96,08,53,119 वर्ष पुर्व सूर्योदय के साथ ईश्वर ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की।
* सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन राज्य स्थापित किया। इन्हीं के नाम पर विक्रमी संवत् का पहला दिन प्रारंभ होता है।
* प्रभु श्री राम के राज्याभिषेक का दिन यही है।
* 143 वर्ष पूर्व स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इसी दिन को आर्य समाज की स्थापना दिवस के रूप में चुना। आर्य समाज वेद प्रचार का महान कार्य करने वाला एकमात्र संगठन है।
* विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।
* युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ।
— वैदिक नववर्ष का प्राकृतिक महत्व —
* वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है।
* फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।

🚩 मीडिया कवर परिवार द्वारा नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं 🚩

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