प्रकृति, सौहार्द व पर्यावरण संरक्षण को समर्पित है डाला छठ
*डा. ए. के. राय*
सूर्योपासना का महा पर्व “डाला छठ” कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सुहागिन महिलाओं द्वारा श्रद्धा और विश्वास के साथ परम्परागत विधि विधान से मनाया जाता है। । यह “छठ व्रत” पर्व पूर्ण रुप से प्रकृति, सौहार्द व पर्यावरण को समर्पित है। इस पर्व पर जन, जल, जमीन, जागृति, जलवायु तथा स्वच्छता का अनुपम संयोग होता है। वैदिक ग्रन्थों में प्रकृति को सर्वभौमिक चेतन सत्ता माना गया है। यह वास्तविकता है कि मानव आदिकाल से ही अपने जीवन यापन के लिए प्रकृति पर निर्भर रहा है। हमारे वैदिक मनीषियों ने भी हर त्यौहार में प्रकृति की आराधना और उपासना को प्रमुख स्थान दिया है। प्रकृति के पंच महाभूत (पृथ्वी,जल,अग्नि,आकाश तथा वायु) जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। आज जहां पूरा विश्व समुदाय पर्यावरण संरक्षण की दुहाई दे रहा है। वहीं भारत के आध्यात्मिक संत व मनिषियों ने अपने ज्ञान के बल पर उसी समय प्रकृति को संरक्षित करने का महत्व बताया था जो आज भी हिन्दू त्यौहारों में दिखता है। प्रकृति में क्षितिज पर मौजूद सूर्य सृष्टि और उर्जा शक्ति के स्रोत पूंज हैं। उनकी उर्जा को स्वयं में जागृत करने का यह महापर्व है। सूर्य की शक्तियों व उर्जा का उपयोग आदि काल से होता रहा है। सूर्य देव के प्रभाव से जीवन में हर्ष, उमंग,उल्लास तथा ऊर्जा का संचार होता है। यह आध्यात्मिक व वैज्ञानिक सत्यता है कि सूर्योपासना व सूर्य नमस्कार यौगिक क्रियाएं हैं जिसके करने से शारीरिक आरोग्य दायिनी शक्तियां सूर्य की ऊर्जा से ऊर्जावान होती हैं। इससे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा के चलते नयी स्फूर्ति का संचार होता है। आज वैज्ञानिक युग में सूर्य की सौर ऊर्जा (सोलर एनर्जी) का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में हो रहा है।
सूर्योपासना का अनुपम पर्व “डाला छठ” पूर्ण रूप से सूर्य देव और छठी मां (षष्ठी मां या उषा) को समर्पित है। इस त्यौहार के जरिये लोग सूर्य देव, प्रत्युषा (शाम की आखिरी किरण) व देवी उषा (सुबह की पहली किरण) के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं क्योंकि सूर्य ऊर्जा के प्रथम स्रोत हैं जिसके कारण जीवन संभव हो पाया है।
छठ पर्व के पूर्व ही घर परिवार के लोग मिलजुल कर जल स्रोतों व उनके घाटों व आस पास के क्षेत्रों की साफ सफाई कर पूरा वातावरण स्वच्छ बनाते हैं। घाटों पर कच्ची मिट्टी की वेदी बनाया जाता है। पर्व हेतु व्रती महिलाओं द्वारा तामसी भोजन त्यागकर सात्विक ढंग से प्रकृति प्रदत्त भोज्य पदार्थों, फल, फूल, गन्ना, गेहूं, चावल, चीनी व घी के प्रयोग से घर पर ही प्रसाद तैयार किया जाता है। पीतल या बांस की बनी साफ सुपेला और मिट्टी के दीयों ने जगमग रोशनी में पूजन सम्पन्न होता है।
सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा किया जाने वाला यह निर्जला व्रत प्रकृति के एक मात्र प्रत्यक्ष देव सूर्य व उनकी अर्धांगिनी उषा व प्रत्यूषा को समर्पित है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस व्रत से मनोवांछित फल, संतान सुख के साथ पारिवारिक सुख शान्ति की प्राप्ति होती है। वर्ष में दो बार (चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि तथा कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि) को सूर्य देव की उपासना का विशेष वैज्ञानिक महत्व है। यहीं से प्रकृति में ऋतु परिवर्तन होता है। चैत्र मास में वहीं से प्रकृति ठंड से गर्म होती है तो कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी से प्रकृति में ऋतु परिवर्तन के कारण ठंड की दस्तक होती है। इस दिन का महत्त्व खगोलीय व वैज्ञानिकी विद्वानों की नजर में भी विशेष है। वैज्ञानिकी व ज्योतिषीय गणनानुसार षष्ठी तिथि को खगोलीय परिवर्तन होता है। चंद्रमा और पृथ्वी के भ्रमण तलों की सम रेखा के दोनों छोरों पर सूर्य की अल्ट्रा वायलेट किरणें चन्द्र सतह व वायुमंडल के स्तरों से आकर्षित हो जाती हैं तथा सूर्यास्त व सूर्योदय के समय इनकी सघनता सर्वाधिक होती है। सूर्य से उत्सर्जित अल्ट्रावायलेट किरणें जब वायुमंडल में प्रवेश करती हैं तो वहां मौजूद आयन मंडल इन अल्ट्रावायलेट किरणों के सहयोग से अपने में मौजूद प्राणवायु (आक्सीजन) को संष्लेषित कर उसे एलोट्रोप ओजोन में सुरक्षित कर लेता है। इस क्रिया में अल्ट्रावायलेट किरणों का अधिकांश भाग वायुमंडल में ही समाप्त हो जाता है और अल्ट्रावायलेट किरणों का सुक्ष्म मात्रा में अवशेष भाग पृथ्वी पर पहुंचता है जो जीवों के लिए ग्रहणीय होता है। सूर्योपासना के उसी क्रम में व्रतियों के साथ उनके परिजन व दर्शकगण खुले मैदान में नदी, पोखरों, तालाबों व नहरों जैसे जल स्रोतों के सम्मुख पहुंचते हैं तो वही अल्ट्रा वायलेट किरणें उनके शरीर में प्रविष्ट होकर आन्तरिक उर्जा व रोग प्रतिरोधक क्षमता को चैतन्यता प्रदान कर उसे सबल बनाती है और पृथ्वी के हानिकारक जीवाणुओं का नाश करती है। चार दिनों तक चलनेवाले इस व्रत का आरम्भ तो षष्ठी तिथि से दो दिन पूर्व ही हो जाता है। व्रत करनेवाले स्त्री पुरूष सात्विक रीति से, दो दिन पूर्व चतुर्थी तिथि को ही लौकी व अरवा चावल का भात खाकर शरीर को पावन करती हैं। अगले दिन पंचमी तिथि को खरना होता है,जिसमें दिन भर अन्न जल त्याग कर व्रत रहकर संध्या समय खीर पूड़ी बनाकर पूजन अर्चन कर भोग लगाकर उसे ग्रहण करते हैं। तीसरे दिन छष्ठी तिथि को मुख्य पर्व होता है। इस दिन व्रती निर्जला व्रत (अन्न जल त्याग कर) पूरे दिन छठ पर्व की तैयारी करती हैं। प्रसाद के लिए गुड़,चीनी, चावल, गेहूं, घी आदि के साथ मीठे पकवान बनाये जाते हैं। प्रसाद के लिए हर प्रकार के फल आदि को बांस के बने टोकरियों में रखकर पूजा स्थल पर दीप जलाकर व देवी के गीत गाते हुए पूजा की तैयारी में जूटी रहती है। सूर्यास्त से पूर्व सभी व्रती अपने जलते दीप, पूजन सामग्रियों, फल व प्रसाद से भरे टोकरियों तथा गन्ने के साथ घाटों तक पहुचते हैं और घाट पर अपनी वेदी पर सामग्री रखकर पूजन करती हैं। व्रती जल में खड़ा हो कर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देकर जलते दीप संग अपने घर वापस होती हैं और रात भर जलते दीप के प्रकाश में जागरण करती हैं। दूसरे दिन प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में एक बार फिर अपने सभी सामग्री व जलते दीप संग गीत गाते हुए पुनः अपने घाटों पर पहुंच कर वेदी पर सामग्री रखकर पूजन अर्चन करती हैं और फिर जल में खड़ा होकर उदयागामी सूर्य को गौदुग्ध का अर्घ्य देकर जलते दीप को जलधारा में प्रवाहित कर अपना व्रत पूर्ण करती हैं। लहुरी काशी के पंडित ओम प्रकाश तिवारी के अनुसार, प्रकृति व पर्यावरण को समर्पित सूर्योपासना का महा पर्व डाला छठ रविवार 19 नवम्बर को मनाया जायेगा। श्री हृषिकेश हिन्दी पंचांग वाराणसी के अनुसार इस वर्ष सूर्य षष्ठी का प्रथम अर्घ्य (अस्तगामी) 19 नवम्बर को सूर्यास्त संध्या समय 05:22 बजे और अगले दिन सप्तमी तिथि रात्रि शेष रहते अरुणोदय (उदित सूर्य) को द्वितीय अर्घ्य दिया जायेगा। उदित तिथि में अष्टमी होने के कारण सूर्योदय से पूर्व ही प्रातः कालीन अर्घ्य दिया जायेगा।
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