कवि की रचना – व्यथा गांव की

रह गया है शेष अब गाँव में
निर्जन,निर्वसन,निष्कासन…..

मिला था बपौती में गाँव को
एक अट्टालिका, गगनचुम्बी
धन-मान का इन्द्रासन
पर हाय,गंवा दिया है गाँव ने
मिला वह बपौती का परमासन
रह गया है शेष अब गाँव में
निर्जन,निर्वसन,निष्कासन….

हाय, वह गाँव के बुद्धिजीवियों का इतिहास,
हाय,दिखता नही कहीं भी आस पास,
घोड़े भी खाते थे जहां जलेबी दूध,
न्यायालयों में टंगती थीं जहां पूर्वजों की तस्वीरें,
पलते थे जहां बड़े बड़े शूरमा,
रह गयी है अब उनके स्थान पर तबले की थाप,
मंजीरे की झंकार,
यहाँ तक कि खो गयी है कहीं कहीं पर संस्कृति भी,
बची है केवल झींगुरों की आवाज,
वीराना पन,
अकेलापन,
अन्धापन।
रह गया है शेष अब गाँव में
निर्जन,निर्वसन,निष्कासन…..

रो रहा है बूढ़ा बरगद खड़ा के गाँव के बाहर,
जिसने देखी हैं बीसियों पीढ़ियां
सर्दी, गरमी,बरसात की मार खाकर,
इन्तजार है उसे शायद किसी चमत्कार का,
आये कोई रहनुमा अब इस गाँव का,
मगर यहाँ तो वही है-
निरहू ,बुधई, भिखई
यहाँ तक की सोनपतिया भी,
सबके सब पड़े हैं धुत् दारु के नशे में,
लड़का ठिठुर रहा है ठंढ से,
छोटा वाला तड़प रहा भूख से,
बड़ी वाली हो चुकी काफी जवान,
मगर फिकर किनको है इनकी ?
सब के सब खींच रहे हैं दारु के नशे में
राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री का आसन
रह गया है शेष अब गाँव में
निर्जन,निर्वसन,निष्कासन…..

कवि राजेश ओझा मोकलपुर गोण्डा

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