सूफी संत मलिक मर्दान का सालाना उर्स आज

गाजीपुर(उत्तर प्रदेश),16 अप्रैल 2022। मनिहारी क्षेत्र पंचायत अंतर्गत शादियाबाद में मौजूद मशहूर सूफी संत एवं अल्लाह के वली हजरत मलिक मर्दान अलेह रहमान की प्रसिद्ध मजार आज भी क्षेत्र में आस्था और विश्वास का केंद्र बनी हुई है। हिंदू मुस्लिम मिल्लत की यादगार निशानियों को अपने में समेटे यहां हर साल सोलह अप्रैल को उर्स मुबारक के पाक मौके पर हाजिरी लगाने विभिन्न इलाकों और जिलोंं के जायरीन इस पाक मजार पर दुआखानी करने आते हैं। मान्यता है कि यहां पर दुआखानी करने वाले कभी खाली हाथ नहीं जाते। उनकी मन्नतें और दुआखानी अल्लाताला के दरबार में कबूल फरमाई जाती है।

मलिक मर्दान के बारे में बताया जाता है कि बुलंद मर्तबे व रूहानी शख्सियत के मालिक हजरत मखदूम मलिक मर्दान शाह रहमतुल्लाह अलेह शहरे संजर में पैदा हुए थे। इनके वालिद मजिद अलिमेदीन तथा वालदह माजहद हजरते इमामे हुसैन रजीअल्ला अनहां की औलाद थी। अपने इल्म व कर्तबों के धनी यही सूफी संत एवं अल्लाह के वली हजरत मलिक मर्दान अलेह रहमान के नाम से मशहूर हुए। लंबे अरसे तक इल्म व ज्ञान अर्जित करने के बाद अपने शागिर्द मलिक शादी के साथ अनेकानेक स्थानों पर घूमते हुए लगभग 900 साल पहले इस जंगलात भरे इलाके मेें आकर ठहरेे। यहां की आबोहवा,खुशनुमा माहौल और प्राकृतिक नजारे देख उनका मन यहीं बस गया। इसे परवरदिगार की मर्जी समझ उन्होंने यहीं रहने का एलान कर दिया। उनकी मंशा जान उनके शागिर्द सादी ने आसपास के जंगलात को साफकर रहने लायक बनाया। धीरे धीरे यहां आकर लोग बसने लगे और इलाका आबाद होने लगा। मलिक सादी के नाम पर ही तब इस कस्बे को शादियाबाद का नाम दिया गया। भेदभाव से परे सूफी के कारनामों से यह इलाका मशहूर होता गया क्योंकि उनकी दुआओं व बद्दुआओं का असर तुरंत होता था। इसकी मिशाल उनके दूसरे बेटे मलिक महमूद की मजार है जो मसउदपुर में मदरसा तथा मस्जिद के पास बेसों नदी के पास मौजूद है। बताया जाता है कि एक बार मलिक महमूद शिकार करने नदी की ओर गए थे तभी उसी और से एक बारात गाजे बाजे के साथ खुशी का इजहार करते निकल रही थी। बारात केे शोर शराबे सेे मलिक महमूद के शिकार करनेे में बाधा पड़ी तो मलिक महमूद ने जबरन बारात का बाजा बंंद कराकर उसे रुकने पर मजबूर कर दिया। जब अपने अल्हड़ और नादान बेटे की नादानीे मलिक मर्दान बाबा को मिली तो खफा होकर उन्होंने बेेटे को बद्दुआ दे दी कि तुम जहां हो,वहीँ जमीन में धंस जाओ। उस वक्त मलिक महमूद घोड़े पर सवार होकर शिकार से वापस लौट रहा था तभी उसी स्थान पर जमीन में धंस गया। मौजूदा समय में वह मजार आज भी वही मौजूद है। जबकि उनके पहले बेटे की मजार उनकी मजार के पास ही है।
कहा जाता है कि ब्रितानी हुकूमत से पूर्व शादियाबाद का रुतबा और शान काफी बढ़ गया था। बितानी हुकूमत के दौरान रसूकदार नेताओं और आला अधिकारी व मातहदों की आवाजाही से यह इलाका अक्सर गुलजार हुआ करता था । उसी समय शादियाबाद जिले के मशहूर परगने में शुमार हुआ। आजादी के बाद शादियाबाद का इलाका सिमटता गया और आज यह इलाका सिर्फ कुछ संस्थानों, सरकारी कागजातों व लोगों की जबानों तक सिमट कर रह गया है। बैंक, थाना, डाकघर , विद्यालय व परगना कहने को भले ही शादियाबाद के नाम पर हैं परंतु जमीनी हकीकत व राजस्व अभिलेखों से शादियाबाद का नाम पूरी तरह गायब है।शादियाबाद का क्षेत्र आज कस्बा कोइरी,कस्वा दयालपुर,मुबारकपुर,मसउदपुर सहित कई ग्राम पंचायतों में बंट कर रह गया है,फिर भी शादियाबाद की यह पाक मजार इतिहास को अपने में समेटे आज भी बुलंदी के साथ अपने कारनामों के लिए मशहूर है। जवाहरलाल नेहरु इंटर कॉलेज के पश्चिमोत्तर में कब्रिस्तान से घिरे इस मजार पर हर साल 16 अप्रैल को दो दिनी सालाना उर्स का जलसा होता है। यह पाक मजार हिंदू मुस्लिम मिल्लत की निशानी के साथ ही साथ खूबसूरत नक्काशी का बेहतरीन नमूना भी है, क्योंकि यह पूरी इमारत बगैर नीव की है जो पत्थर के खम्भों पर टिकी है। हर खम्भों के दो फिट नीचे पत्थर बिछाया गया है जिस पर खम्भे टिके हैं। इन खम्भों की खासियत यह है कि एक बार में ने इन्हें आज तक सटीक नहीं गिना जा सका है। बार-बार गिनने पर इनकी संख्या कभी 36 तो कभी 37 हो जाती है।
मशहूर सूफी संत और अल्लाह के वली हजरत मलिक मर्दान का यह रौजा आज भी हिंदू मुस्लिम जायरीन के लिए आस्था और विश्वास का प्रतीक है। कहा जाता है कि इस मजार से रूहानी तथा इफानी और दुन्याबी फैज का सरचश्म आज भी जारी है। मान्यता है कि इस मजार ए मुबारक पर जो भी जायरीन सच्चे मन से हाजिरी लगाता है, उसकी मुराद पूरी होती है। वैसे यहां हर जुमेरात व जुमे को लोग आकर मन्नत मांगते और चादर चढ़ाते हैं। 16 अप्रैल को हर साल दो दिनी उर्स का मेला लगता है जिसमें हजारों जायरीन शिरकत कर मजारे मुबारक पर हाजरी लगा मन्नत मांगते हैं और मन्नत पूरे होने पर चादरपोशी कर खुशी का इजहार करते हैं।

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