कवि अशोक राय वत्स की नयी रचना – “लहरों से लड़ने वाले”

“लहरों से लड़ने वाले”

दुःख सुख जीवन के अंग हमारे नित प्रति हमें डराते हैं।
पर लहरों से लड़ने वाले ही अमृत कलश उठाते हैं।।

माना पतझड़ के मौसम में दरख़्त निर्वस्त्र हो जाते हैं।
लेकिन बसंत के आते ही सब वस्त्र बदल जाते हैं।।
कंटक पथ अपनाकर योद्धा विजयी ध्वज फहराते हैं।
पर लहरों से लड़ने वाले ही अमृत कलश उठाते हैं।

हम पितृ भक्त हम राष्ट्र भक्त यह धरा हमारी माता है।
हम धरा पुत्र और राष्ट्र प्रेमी धरती ही हमारी माता है।।
अपने श्रम के बल से ही तो हम नित सोना उपजाते हैं।
पर लहरों से लड़ने वाले ही अमृत कलश उठाते हैं।।

जब जब मर्यादा लांघ दुष्ट चीर हरण को बढ़ते हैं।
केशव की भांति हाथ बढ़ा दुष्टों का मर्दन करते हैं।।
हम शक्ति उपासक काली के नर मुण्ड गले में सजाते हैं।
पर लहरों से लड़ने वाले ही अमृत कलश उठाते हैं।।

उगते को शीश नवाते सब यह रीत पुरानी जीवन की।
हम अभय दान दे शत्रु को रखते मर्यादा जीवन की।।
रण बीच चीर के शत्रु को अरि दल को दूर भगाते हैं।
पर लहरों से लड़ने वाले ही अमृत कलश उठाते हैं।

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