होमियोपैथी के अविष्कारक – सैमुअल हैनिमैन

जयन्ती पर विशेष

गाजीपुर । भारत की प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति को विशेष स्थान प्राप्त है। होमियोपैथी की सुक्ष्मीकृत औषधियां रोगों पर तीव्र प्रभावी और जड़ से नष्ट करने में सक्षम होती हैं। होमियोपैथी के अविष्कारक सैमुअल क्रिश्चियन फ्रैडरिक हैनिमैन का जन्म 10 अप्रैल 1755 को यूरोप के जर्मनी के सक्सनी प्रांत के माइसेन नामक छोटे से गांव में हुआ था। माइसेन चीनी मिट्टी के बर्तनों पर पेन्टिंग और चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध था। फ्रैडरिक के पिता क्रिश्चियन गॉटफ्रिड हैनिमैन भी वहां चीनी मिट्टी के बर्तनों पर पेन्टिंग और चित्रकारी का कार्य करते थे। कुशाग्र बुद्धि के मालिक फ्रैडरिक हैनिमैन, पिता की गरीबी और अभावों के बीच ही अंग्रेजी, फ्रेंच, इतालवी, ग्रीक और लैटिन सहित सिरिएक, चाल्डाइक और हिब्रू मेंं प्रवीणता प्राप्त की। हैनिमैन ने लीपजिग में दो साल तक औषधियों का अध्ययन किया पर वहां की नैदानिक सुविधाओं की कमी के कारण वे वहां से वियना चले गए। वियना से अध्ययन के बाद, उन्होंने 10 अगस्त 1779 को एर्लानजेन विश्वविद्यालय से एम.डी. की उपाधि ससम्मान प्राप्त की। एक चिकित्सक के रूप में हैनिमैन ने 1781 में मंसफेल्ड, सॉक्सनी के तांबे-खनन क्षेत्र में एक ग्रामीण चिकित्सक के रुप में चिकित्सा कार्य शुरु किया और फिर जोहन्ना हेनरिएट कुचरर से शादी की। हैनिमैन एलोपैथिक चिकित्सा के क्षेत्र में काम करने का ढंग और नैदानिक व्यवस्था तथा उस समय में दवा की स्थिति व उसके उपयोग के तरीकों से संतुष्ट नहीं थे। वे रोगी के साथ की जा रही क्रुर विधियों पर मर्माहत थे। वे अपने मरीजों पर क्रुर विधियों से इलाज के प्रसन्न नहीं थे। उनका कहना था कि रोगी के इलाज में आसान विधियों का सहारा लेना चाहिए न कि कठोर विधियों का। उन्होंने कहा कि कर्तव्य की मेरी समझ मुझे इन अज्ञात दवाइयों के साथ मेरे दुखी भाइयों के अज्ञात रोगविधि के इलाज की आसानी से अनुमति नहीं देगी। इस तरह से मेरे साथी मनुष्यों की जिंदगी के लिए एक अपराधी बनने का विचार मेरे लिए सबसे भयानक था, इतना भयानक और परेशान था कि मैनें धनार्जन की लालसा त्याग चिकित्सा कार्य छोड़ दिया। उन्होंने दावा किया कि कभी-कभी अभ्यास करने के लिए उसे जो दवा दी गई थी, वह रोगी को अच्छे से अधिक नुकसान पहुंचाती थी। इससे परेशान होकर उन्होंने अपने विवाहित जीवन के शुरुआती वर्षों में पूरी तरह से अपना चिकित्सा कार्य छोड़ दिया। जीवन व्यतीत करने के लिए धन की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए उन्होंने विभिन्न भाषाओं की जानकारी के कारण उन्होंने अनुवादक के रुप में कार्य आरंभ किया। वे वैज्ञानिक और चिकित्सकीय पाठ्यपुस्तकों के अनुवाद एक से दूसरी भाषा में करके जीविकोपार्जन करने लगे। काम के साथ उस समय उन्होंने कई वर्षों तक सक्सनी के आसपास यात्रा की। कई अलग-अलग कस्बों और गांवों में रहकर, एल्बे नदी से दूर रहने और अलग-अलग समय पर बसने के लिए ड्रेस्डन, टॉर्गौ, लीपज़िग और के’चेन (एनहाल्ट) में निवास किया अनुवादक के रुप में कार्य के दौरान जब वे अंग्रेजी में लिखी कुलेन्स मटेरिया मेडिका का अनुवाद जर्मन भाषा में कर रहे थे। उसी समय सिनकोना(कुनैन) के गुणधर्म का अनुवाद करते समय हैनिमेन का ध्‍यान डॉ. कुलेन द्वारा लिखित फुटनोट पर पड़ा। फुटनोट में कुलेन ने लिखा था कि सिनकोना की छाल मलेरिया रोग की दवा है, लेकिन यह स्‍वस्‍थ शरीर में प्रयोग करने से मलेरिया जैसे लक्षण भी उत्पन्न करती है। कुलेन की लिखी गयी यह बात डॉ. हैनिमेन के दिमाग में बैठ गयी। उसकी परख करने हेेेतु उन्होंने सिनकोना छाल का स्वयं पर प्रयोग आरम्भ कर दिया,इससे लगभग दो हफ्ते बाद उनके शरीर में मलेरिया जैसे लक्षण उत्पन्न हो गये तो उन्होंने सिनकोना खाना बन्‍द कर दिया। इससे मलेरिया रोग और उसके लक्षण स्वतः समाप्त हो गये। इस प्रयोग को डॉ. हैनिमेन ने कई बार दोहराया और हर बार उनके शरीर में मलेरिया जैसे लक्षण पैदा हुये। यही .ए.के.रायमहात्मा हैनिमैन की नवीन चिकित्सा पद्धति के अविष्कार का मूल सूत्र बना। कुनैन के इस प्रकार से किये गये प्रयोग का जिक्र डॉ. हैनिमेन नें अपनें एक चिकित्‍सक मित्र से की। इस मित्र चिकित्‍सक नें भी डॉ. हैनिमेन के बताये अनुसार सिनकोना का सेवन किया और उसे भी मलेरिया बुखार जैसे लक्षण पैदा हो गये। समय समय पर ऐसा प्रयोग उन्होंने कई औषधियों के साथ किया और वैसी ही अनुभूति हर बार होती रही। और उन्‍होंनें शरीर और मन में औषधियों द्वारा उत्‍पन्‍न किये गये लक्षणों, अनुभवो और प्रभावों को लिपिबद्ध करना शुरू किया। अपने प्रयोगो के आधार पर हैनिमैन नें यह निष्‍कर्ष निकाला कि जो दवा किसी रोग को उत्पन्न करने की शक्ति रखती है,उसी दवा के सुक्ष्म प्रयोग से उसका समूल नष्ट किया जा सकता है और वह भी वगैर किसी शारिरिक क्षति के।उन्होंने और अधिक औषधियोंं को भी इसी तरह परीक्षण करके परखा। इस प्रकार से किये गये परीक्षणों और अपने अनुभवों को डा. हैनिमेन नें तत्‍कालीन मेडिकल पत्रिकाओं में “मेडिसिन आंफ एक्‍सपीरियन्‍सेस” शीर्षक से लेख लिखकर प्रकाशित कराया। इसे होमियोपैथी के अवतरण का प्रारम्भिक स्‍वरूप कहा जा सकता है। हैनिमैन ने समता के सिद्धांत पर अति सुक्ष्म मात्रा में औषधियों का सेवन कराकर बहुत से रोगियों को रोग मुक्त कर दिया। यह चिकित्सा के ‘समरूपता के सिंद्धात’ पर आधारित है जिसके अनुसार औषधियाँ उन रोगों से मिलते जुलते रोग दूर करती हैं, जिन्हें वे उत्पन्न कर सकती हैं। औषधि की रोगनाशक शक्ति उससे उत्पन्न होने वाले लक्षणों पर निर्भर है। जिन्हें रोग के लक्षणों के समान किंतु उनसे प्रबल होना चाहिए अर्थात रोग अत्यंत निश्चयपूर्वक, जड़ से, अविलंब और सदा के लिए नष्ट और समाप्त उसी औषधि से हो सकता है जो मानव शरीर में, रोग के लक्षणों से प्रबल और लक्षणों से अत्यंत मिलते जुलते सभी लक्षण उत्पन्न कर सके। होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति में चिकित्सक का मुख्य कार्य रोगी द्वारा बताए गए जीवन-इतिहास एवं रोगलक्षणों तथा स्वयं द्वारा एकत्रित लक्षणों के आधार पर उसी प्रकार के कृत्रिम रोग लक्षणों को उत्पन्न करनेवाली सदृृृश्य औषधि का चुनाव करना है। रोग लक्षण एवं औषधि लक्षण में जितनी ही अधिक समानता होगी रोगी के स्वस्थ होने की संभावना भी उतनी ही अधिक रहती है। होमियोपैथी के शुरुआती दौर में हैनिमैन को तत्कालिक एलोपैथिक चिकित्सकों का काफी दबाव झेलना पड़ा। उन्होंने हैनिमैन के मार्ग में काफी परेशानियां खड़ी की,फलस्वरूप अनेकों बार उन्हें अपना स्थान बदलना पड़ा, परन्तु अपने पथ पर अडिग वे सदैव अपने अविष्कारों में लिप्त प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते रहे। बाद के समय में हैनिमैन के जीवनकाल में ही इस चिकित्सा पद्धति का प्रचार तीव्र गति से हुआ और अनेकों चिकित्सक उनसे प्रभावित होकर होमियोपैथिक चिकित्सा करनी शुरू कर दी। भारत में होमियोपैथी चिकित्सा का आरम्भ पंजाब के राजा महाराजा रणजीत सिंह के इलाज के साथ हुआ। महाराजा रणजीत सिंह के लियेे सर्व प्रथम डॉ. गिरीश गुप्ता ने होमियोपैथिक औषधियों का प्रयोग किया था। इसकी सुक्ष्म औषधियों की सफलता देखकर पश्चिम बंगाल में इस पद्धति पर व्यवस्थित काम शुरू हुआ। धीरे-धीरे पूरे भारत में इस पद्धति का फैलाव हुआ। भारत में 1971 में होम्योपैथिक फार्माकोपिया बना और भारत सरकार ने होम्योपैथी को 1972 में मान्यता प्रदान की। उसके बाद केन्द्रीय होम्योपैथी परिषद और केन्द्रीय अनुसंधान परिषद की भी स्थापना हुई। आज होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति भारत सहित विश्व के अनेकों देशों में सफलतापूर्वक कार्य कर रही है और इसके चिकित्सक पीड़ित मानवता को रोग मुक्त करने में लगे हुए हैं। विश्व को अमूल्य चिकित्सा पद्धति की सौगात देने वाला महान वैज्ञानिक चिकित्सक ने दो जूलाई 1843 में नवासी वर्ष की उम्र में पेरिस में जीवन की अंतिम सांस ली। उन्हें पेरिस के पेररे लैचैस कब्रिस्तान में दफनाया गया। चिकित्सा विज्ञान में अक्षय कीर्ति स्थापित करने वाले मानवता प्रेमी महान संत को उनकी 266 वीं जयन्ती पर शत शत नमन…….. डा.ए.के.राय

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