कवियत्री की नयी रचना

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जीवन यात्रा- बात बहुत पुरानी है
एक बार मैंने बचपन ढ़ूंढा
अल्हड़ सा था कुछ
फिर पुराने बगीचे में
आम तोड़ते मिला किशोर
थोड़ा शरारती थोड़ा निडर…
फिर मिला जीवन तलाशता प्रौढ़
नदी के शान्त तट पर….. वैसे तो उसे
बहुत कुछ करना था
बहुत कुछ बनना था
अन्वेषक, लेखक, विचारक,
चित्रकार या पत्थरों में
नई दुनिया तराशता मूर्तिकार
बनना था घुमक्कड़
देखनी थी नई संरचनाएं पर इनमें से वो कुछ भी
नहीं बन सका
क्यूंकि उसे एक ऐसी दौड़ में
हिस्सा लेना था
जहां दुनिया भर के संसाधनों को
अपने कलेजे पर ढोना
जीवन की बेहतरी के अंश थे
जबकि सुदूर उत्तर में
किसी नदी के उद्गम पर
छोटी सी कुटिया में भी
जीवन इससे सरल होता…
अंततः उसने दौड़ में हिस्सा लिया….. उस घटना के बहुत वक्त बाद
मुझे एक रोज बुढ़ापा मिला
ठीक उसी जगह जहां
बरसों पहले प्रौढ़ मिला था
वही मुद्रा वही शान्ति
वैसी ही विरक्ति…
मैंने धीरे से पूछा
खुश हो अब
जी लिया न अपने मन का
कांपती आवाज में
उसने बस इतना कहा
काश जी लिया होता
अपने मन का……।

(पूजा राय)

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