कविता ! “रण कौशल ऐसा दिखलाना”

“रण कौशल ऐसा दिखलाना”

अरि दल ने आँख दिखा कर के, जरा देख हमें ललकारा है,
जिसने था कुमकुम तिलक किया, उसने भी आज पुकारा है।
उठ समर भूमि में जाने को,दुश्मन को धूल चटाने को,
जो पला हमारे टुकड़ों पर,उसने ही हमें ललकारा है।

क्या देख रहा है खड़ा-खड़ा, यह मातृ भूमि है पूछ रही,
जिसने पाला था नाजों से,आगे बढ़कर है पूछ रही।
यदि कोख लजानी थी मेरी, क्यों जन्म लिया मेरे तन से।
क्यों न रह गई निपूती मैं,है बिलख -बिलख कर पूछ रही।

पूछ रही बहना की राखी,तिलक है उसका पूछ रहा,
जो जान छिड़कती है तुझ पर, है प्यार भी उसका पूछ रहा।
यदि कायरता दिखलानी थी,क्यों स्वप्न दिखाए थे मुझको?
कर विवाह अपनाया जिसे, अब सिंदूर है उसका पूछ रहा।

रण भेरी है बज उठी ,है समर भूमि यह पुकार रही,
उठ खड़ग उठा पौरुष दिखला, रण चण्डी आज पुकार रही।
तू एड़ लगा राणा के जैसे, काट शीश पर शीश आज,
रण बीच हरा शत्रु दल को, है मातृ भूमि यह पुकार रही।

लहू तेरी रगों में में राणा का, फिर आज खड़ा क्यों सोच रहा,
आगे बढ़ अपने पौरुष से, तू बाट है किसकी जोह रहा।
जो रहा सोचता ऐसे ही, अरि दल आगे बढ़ जाएगा,
तेरा प्रताप है अर्जुन सा, क्यों मन में विष है घोल रहा।

शमशीर उठा और कर ताण्डव, रण चण्डी को लहू पिलाना है,
अरि दल में हाहाकार मचे, वह रौद्र रूप दिखलाना है।
उठ दिखा चपलता रण भूमि में, भारत माँ का मान बढ़ा,
करें देव बढ़ अगवानी, रण कौशल ऐसा दिखलाना है।

         कवि - अशोक राय वत्स

रैनी, मऊ उत्तरप्रदेश, 8619668341

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