अयोध्या ! राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद पर शीर्ष न्यायालय में सुनवाई पूरी, फैसला बाद में

नयी दिल्ली, 16 अक्टूबर 2019। शीर्ष अदालत ने संवेदनशील अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद मामले की सुनवाई आज पूरी करते हुए फैसला बाद में सुनाने का निर्णय किया।
उल्लेखनीय है कि प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सितंबर, 2010 के फैसले के विरुद्ध दायर अपीलों पर छह अगस्त से रोजाना 40 दिन तक सुनवाई की। इस दौरान विभन्न पक्षों ने अपनी अपने पक्ष रखा।
संविधान पीठ ने इस मामले में सुनवाई पूरी करते हुये संबंधित पक्षों को ‘मोल्डिंग ऑफ रिलीफ’ (राहत में बदलाव) के मुद्दे पर लिखित दलील दाखिल करने के लिये तीन दिन का समय दिया। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर भी शामिल रहे हैं।
शीर्ष अदालत ने शुरू में इस विवाद का मध्यस्थता के माध्यम से सर्वमान्य समाधान निकालने का प्रयास किया था। न्यायालय ने सेवानिवृत्त न्यायाधीश एफएमआई कलीफुल्ला की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय मध्यस्थता समिति भी गठित की थी लेकिन उसे इसमें सफलता नहीं मिली। इसके बाद, प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने सारे प्रकरण पर छह अगस्त से रोजाना सुनवाई करने का निर्णय किया।
इस मामले में आज सुनवाई शुरू होने पर पीठ ने स्पष्ट कर दिया कि वह पिछले 39 दिनों से अयोध्या भूमि विवाद मामले में सुनवाई कर रही है। पीठ ने कहा था कि इस मामले में सुनवाई पूरी करने के लिए किसी भी पक्षकार को आज के बाद और समय नहीं दिया जाएगा।
बताते चलें कि संविधान पीठ ने अयोध्या में 2.77 एकड़ विवादित भूमि को तीन पक्षकारों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला- के बीच बराबर-बराबर बांटने का आदेश देने संबंधी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सितंबर, 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 14 अपीलों पर इस दौरान विस्तार से सुनवाई की।
देश के इस संवेदनशील इस मुद्दे पर 17 नवंबर से पहले ही फैसला आने की सम्भावना है क्योंकि प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई उसी दिन सेवानिवृत्त हो रहे हैं।
ज्ञातव्य है कि शुरूआत में निचली अदालत में इस मसले पर पांच वाद दायर किये गये थे। पहला मुकदमा ‘राम लला’ के भक्त गोपाल सिंह विशारद ने 1950 में दायर करते हुए विवादित स्थल पर हिन्दुओं के पूजा अर्चना का अधिकार लागू करने का अनुरोध किया था। उसी वर्ष, परमहंस रामचन्द्र दास ने भी पूजा अर्चना जारी रखने और विवादित ढांचे के मध्य गुंबद के नीचे ही मूर्तियां रखी रहने के लिये मुकदमा दायर किया था। लेकिन बाद में यह मुकदमा वापस ले लिया गया था। बाद में, निर्मोही अखाड़े ने 1959 में 2.77 एकड़ विवादित स्थल के प्रबंधन और शेबैती अधिकार के लिये निचली अदालत में वाद दायर किया। इसके दो वर्ष उपरांत 1961 में उप्र सुन्नी वक्फ बोर्ड भी अदालत में पहुंचा गया और उसने विवादित संपत्ति पर अपना मालिकाना हक होने का दावा किया।
‘राम लला विराजमान’ की ओर से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश देवकी नंदन अग्रवाल और जन्म भूमि ने 1989 में मुकदमा दायर कर समूची संपत्ति पर अपना दावा किया और कहा कि इस भूमि का स्वरूप देवता का और एक ‘न्यायिक व्यक्ति’ जैसा है।
अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा गिराये जाने की घटना और इसे लेकर देश में हुये सांप्रदायिक दंगों के बाद में सारे मुकदमे इलाहाबाद उच्च न्यायालय को निर्णय के लिये सौंप दिये गये थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 30 सितंबर, 2010 के फैसले में 2.77 एकड़ विवादित भूमि तीन पक्षकारों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला- के बीच बांटने के आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी थी।
शीर्ष अदालत ने मई 2011 में उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगाते हुये अयोध्या में यथास्थिति बनाये रखने का आदेश दिया था।

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