सूली पर चढ़ना पसंद, मगर माफी कत्तई नहीं – मजरूह सुल्तानपुरी

ग़ाज़ीपुर। मजरूह सुल्तानपुरी की याद में दिलदारनगर क्षेत्र में जनार्दन ज्वाला के निवास पर आयोजित अदबीगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार व कवि जनार्दन ज्वाला ने कहा कि मजरूह सुल्तानपुरी उर्दू हिंदी शायरी में एक बड़ा नाम है।उनका एक शेर…
मैं अकेले ही चला था जानिबे मंज़िल मगर।
लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया, बहुत ही सराहनीय रहा।
  ऐसे शेर के रचनाकर मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म एक अक्टूबर 1919 को निजामाबाद में तथा मृत्यु 24 मई सन 2000 को मुंबई में हुई।
   जिंदगी के इस लंबे सफर में उन्होंने उर्दू शायरी और हिंदी फिल्मों में अपनी रचनाओं के माध्यम से बहुत समृद्ध किया। आने वाली पीढ़ियों को एक रौशनी के मीनार के रूप में इनकी रचनाएं मार्गदर्शन करती रहेंगी। आगे उन्होंने कहा कि मजरूह साहब को फिल्म जगत में कई फिल्म फेयर एवार्ड से सम्मानित किया गया। उन्हें फिल्म जगत के सबसे बड़े एवार्ड “दादासाहेब फाल्के” से नवाजा गया। मजरूह साहब अपने वसूलों से कभी समझौता नहीं किये। एक बार उन्हें अपनी एक रचना के कारण जेल जाना पड़ा। उनके चाहने वालों ने बहुत समझाया कि आप माफी मांग ले पर उन्होंने कहा कि मैं सूली पर चढ़ना पसंद करूंगा मगर माफी किसी कीमत पर नहीं मांगूंगा।
जेल में रहकर उन्होंने अपने शेरो-शायरी को और समृद्ध बनाया।
   इस अवसर पर बेबाक पत्रकारिता के धनी डॉ प्रेम कुमार सिंह ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए कहा कि कौन जानता था कि असरारुल हसन नाम का नौजवान जो एक राजपूत पठान के घर में जन्म लेने वाला एक दिन शायरी के आसमान पर मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से एक बड़ा सितारा बन इस फलक पर चमकेगा। वह एक बहुत बड़े हकीम भी थे। हकीमी उन्हें रास नहीं आई और शायरी के क्षेत्र में आ गए। इस क्षेत्र में फिल्मों और मुशायरे की दुनिया में जो अपनी छाप छोड़ गए, वह एक यादगार दस्तावेज बन गये। उन्होंने अरबी फारसी की शिक्षा भी प्राप्त की थी मजरूह साहब हाफिजे कुरान भी थे।
  वहीं गोष्टी को संबोधित करते हुए खुर्शीद दिलदार नगरी ने कहा मजरूह सुल्तानपुरी जिगर मुरादाबादी के बहुत करीब रहे। साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी की तरह मजरूह साहब भी प्रगतिशील शायर थे। फिल्म जगत में पहली बार उन्हें फिल्म शाहजहां में गीत लिखने का अवसर मिला सहगल द्वारा गाया गया गीत ” जब दिल ही टूट गया तो हम जीकर क्या करेंगे” फिर तो मजरूह सुल्तानपुरी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
   अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए तौसीफ़ गोया ने कहा कि फ़िल्म दस्तक का एक ग़ज़ल के शेर 
” हम हैं मताए कूचा ओ बाजार की तरह
उठ रही है हर नजर खरीदार की तरह”
जैसी गजलों को लिखकर शोहरत मजरूह साहब ने बुलंदियों का जो मुकाम हासिल किया वो अपने आप मे बेमिसाल है। फिल्म दोस्ती में में लिखे उनके गीत ने उन्हें कालजयी रचनाकार बना दिया।
जैसे कि
“मंजिल मिल ही जाएगी भटकते भटकते ही सही
गुमराह तो वो है जो घर से निकलते ही नहीं।
     मास्टर नियाज अहमद ने अपने भावों को व्यक्त करते हुए कहा कि शेरो शायरी और फिल्म जगत में जितनी शोहरत मजरूह सुल्तानपुरी साहब को मिली ।बहुत कम लोगों को मिली है अपने शायरी की छाप लोगों के दिलों पर छोड़ गए।
   अदबी गोष्टी की अध्यक्षता हिंदी के गीतकार सुरेंद्र आर्य ने तथा संचालन काशी विद्यापीठ पत्रकारिता के छात्र रोहित पटवा ने किया।

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