बुद्ध पूर्णिमा! शान्ति व उपासना के अग्रदूत को समर्पित बैसाख पूर्णिमा

लूम्बिनी (नेपाल ),30 अप्रैल 2018। वुद्ध पूर्णिमा हर साल बैसाख माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है ।आज का दिन ( वेसक या हनमतसूरी) बौद्ध धर्मावलम्बियोंं का प्रमुख त्यौहार है। आज ही के दिन अर्थात बुद्ध पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूूर्व हुआ था, इसी दिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और इसी दिन उनका महानिर्वाण भी हुआ था। ऐसा संयोग अन्य किसी महापुरुष के साथ नहीं मिलता है। बैसाख पूर्णिमा को बुद्ध का जन्म लुंबिनी (नेपाल) में हुआ था।यह स्थान भारत नेपाल की सोनौली सीमा से करीब पच्चीस किमी की दूरी पर स्थित है।यहां की आकर्षक छटा अत्यंत मनमोहन है। प्राकृतिक संसाधनों से पूर्ण इस स्थान पर अनेकों देश के मन्दिर निर्मित हैं
यहीं उनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के पुुुुत्र के रूप में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थी।जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हुआ, उनका पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया। सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग की तलाश एवं सत्य दिव्य ज्ञान खोज में रात में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया ( बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से गौतम बुद्ध बन गए। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने सिद्धार्थ को जन्म दिया था। गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम कहलाए। जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा।

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शुद्दोधन ने उनके जन्म के पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा।

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द्धार्थ का मन बचपन से ही करुणा और दया से भरा था। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देते थे। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था। सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की। सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद् को तो पढ़ा हीं , राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता। सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कोली कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ। सभी सुखों के बावजूद उनका मन राजकाज में नहीं रमा।
संसारिक सुखों का मोह त्याग कर सत्य की खोज में पत्नी यशोधरा , दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े। घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना व समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे।भारत के विहार प्रांत के गया के पास वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे, जहां उनकी साधना पूरी हुई और उन्हें सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ ‘बुद्ध’ कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का वह स्थान बोधगया के नाम सेे मशहुर है। महात्माा वुद्ध 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया और पहले के पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया। भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।
बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को भेजा।

नेपाल में स्थित लुंबिनी में इस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था।

अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम् भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्ध धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है। बुद्ध परिनिर्वाण में प्रवेश करते हुए पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बैसाख पूर्णिमा के दिन ही ४८३ ई. पू. में ८० वर्ष की आयु में, कुशीनगर में उन्होने निर्वाण प्राप्त किया था। वर्तमान समय में कुशीनगर उत्तर प्रदेश का एक जिला है।यहां बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बुद्ध की महापरिनिर्वाणस्थली कुशीनगर में स्थित महापरिनिर्वाण विहार पर मेला लगता है।विहारों में पूजा-अर्चना करने हेेेतु वौद्धिस्टों के साथ साथ बड़ी श्रद्धा के साथ हिन्दू जन भी पूजा करने आते हैं। इस मंदिर का स्थापत्य अजंता की गुफाओं से प्रेरित है। इस विहार में भगवान बुद्ध की लेटी हुई (भू-स्पर्श मुद्रा) ६.१ मीटर लंबी मूर्ति है। जो लाल बलुई मिट्टी की बनी है। यह विहार उसी स्थान पर बनाया गया है, जहां से यह मूर्ति निकाली गयी थी। विहार के पूर्व हिस्से में एक स्तूप है ,जहां पर भगवान बुद्ध का अंतिम संस्कार किया गया था। यह मूर्ति भी अजंता में बनी भगवान बुद्ध की महापरिनिर्वाण मूर्ति की प्रतिकृति है।

श्रीलंका व अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में इस दिन को ‘वेसाक’ उत्सव के रूप में मनाते हैं जो ‘वैशाख’ शब्द का अपभ्रंश है। अपने मानवतावादी एवं विज्ञानवादी बौद्ध धम्म दर्शन से भगवान बुद्ध दुनिया के सबसे महान महापुरुष माने जाते हैं। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में १८० करोड़ से अधिक लोग इस दिन को त्योहार के रुप में मनाते हैं। यह त्यौहार भारत, चीन, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाइलैंड, जापान, कंबोडिया, मलेशिया,श्रीलंका, म्यांमार तथा इंडोनेशिया सहित विश्व के कई देशों में मनाया जाता है।आज के दिन विश्व भर से बौद्ध धर्म के अनुयायी लूम्बिनी, बोधगया, सारनाथ (वाराणसी ) तथा कुशीनगर आकर पूजन अर्चन कर प्रार्थना करते हैं। आज लूम्बिनी में बौद्ध धर्म ग्रंथों का पाठ के साथ ही साथ महात्मा बुद्ध की मूर्ति पर फल-फूल चढ़ाकर, दीपक जलाकर पूजा की जा रही है।ऐसा ही नजारा आज सारनाथ (जहां उन्होंने अपना पहला उपदेश दिया था), बोधगया तथा कुशीनगर में भी देखने को मिलता है।आज ही के दिन दिल्ली स्थित बुद्ध संग्रहालय में बुद्ध की अस्थियों को बाहर प्रदर्शित किया जाता है, ताकि बौद्ध धर्मावलंबी वहाँ आकर प्रार्थना कर सकें।
मानवतावादी शान्तिदूत को सादर नमन।

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