कवि हौसिला प्रसाद अन्वेषी की नयी प्रस्तुति

मैं सोचता हूं सोचता ही रह जाता हूं।
जहां देखता हूं वहीं ठहर जाता हूं ।।

हवा आती है बह जाती है ।
मैं उसके पास से गुजर जाता हूं ।।

प्रतिरोध में खड़ा हूं मगर हिलता हूं ।
बीच रास्ते में ही कहीं भटक जाता हूं।

वक्त कहता है चलो आगे बढ़ो।
मगर मैं उसे देखता ही रह जाता हूं।।

सोचता रहता हूं गलत करता हूं ।
मजबूरियों के हाथ प्रायः बिक जाता हूँ।

जानता हूं पूर्वज हमारे योद्धा थे ।
मगर मैं रास्ते में ही अटक जाता हूं ।।

मार खाता हूं इस सियासत से हरदम।
फिर भी प्रायः बेहोशी में चला जाता हूं।।

रोता हूं चिल्लाता हूं कहता भी हूं।
ऐन वक्त पर मैं नासमझी अपनाता हूं।

गीत गजल कविता सब लिखता हूं।
मगर क्यों लिखता हूं भूल जाता हूं।।

सवाल यह नहीं कि मैं जिंदा हूं ।
सवाल यह है कि मैं जागकर भी सो जाता हूं।।

रास्ते होंगे तो होंगे बहुत अच्छे ।
मगर मैं तो वतन के रास्ते पे जाता हूं।।

आजादी कैद है वहां धनालय में ।
जानबूझकर यह दर्द छिपा जाता हूं।।

अपराधी हूं कभी-कभी सोचता हूं।
इसीलिए तो उसका फल पाता हूं ।।

मैं सोचता हूं सोचता ही रह जाता हूं।
जहां देखता हूं वहीं ठहर जाता हूं।।

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