कविता ! तिरस्कार

उम्र के
तमाम
सुनहरे दिन
सौंप देने के बाद
जब कोई बाप
सुनता है,
निष्कासन।
एक पल रुकता है
और फिर
चल पड़ता है,
अपने रास्ते
समझदार बनकर ।
इस असाध्य
त्याग वेला में
वह
पा चुका होता है
अपने आप को
अपने भीतर।
जैसे मिल गया हो
कोई हितैषी
छूटा हुआ
पुराना ।
इस सुदामा मिलन में
मिल जाता है
सब कुछ
अप्रतिम
अगोचर
एक साथ ।।

कवि – हौसिला प्रसाद अन्वेषी

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